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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ पारिख का अंग २७ - २४/२७)*
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*साचे को साचा कहै, झूठे को झूठा ।*
*दादू दुविधा को नहीं, ज्यों था त्यों दीठा ॥२४॥*
यह प्रत्यगात्मा स्वयं प्रकाश होने से सत्य है और प्रपञ्च अविद्यामय होने से मिथ्या है । इस प्रकार जिसको ज्ञान हो गया है उसको कभी भी द्वैत भ्रान्ति नहीं होती और न द्वैत भ्रान्ति से क्लेश पाता है ।
विवेकचूडामणि में- यदि अज्ञान रूप हृदय ग्रन्थि का सर्वथा नाश हो जाय तो उस इच्छा रहित पुरुष के लिये सांसारिक विषय क्या स्वतः ही प्रवृत्ति के कारण हो जायगें, नहीं ।
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*॥ पारिख अपारिख ॥*
*दादू हीरे को कंकर कहैं, मूरख लोग अजान ।*
*दादू हीरा हाथ ले, परखैं साधु सुजान ॥२५॥*
जैसे अज्ञानी हीरे को पत्थर जान कर उसके महत्त्व को न जानता हुआ त्याग देता है और जौहरी उसके चाकचिक्य को देख कर उसकी परीक्षा करता है और अपने पास सुरक्षित रखता है । उसी प्रकार अज्ञानी परमात्मा या उसके नाम का महत्त्व न जान कर या ब्रह्म ज्ञान की महिमा को न समझ कर भक्तिमार्ग में या नाम स्मरण में प्रवृत्त नहीं होता और ब्रह्म ज्ञान में भी वह प्रवृत्त नहीं होगा । भागवत में ऐसे पुरुषों के विषय में लिखा है कि-
जिसके कानों में कभी भी भगवान् श्रीहरि की लीला कथा नहीं पडी । भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन नहीं सुना वह मरे कुत्ते से, विष्ठा भोजी सूकर, ऊंट और गदहों से भी गया बीता है ।
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*॥ सगुरा निगुरा ॥*
*सगुरा निगुरा परखिये, साध कहैं सब कोइ ।*
*सगुरा साचा, निगुरा झूठा, साहिब के दर होइ ॥२६॥*
सद्गुरु पुरुष ही व्यवहार करने योग्य हैं । निगुरु पुरुष नहीं । जिसके हृदय में गुरु वेदवाक्यों में श्रद्धातिशय हो वह सद्गुरु कहलाता है और जिसके हृदय में किसी के भी प्रति श्रद्धा नहीं है वह निगुरा कहलाता है । सगुरा निगुरा से सज्जन और दुर्जन से तात्पर्य है । अतः सज्जन का संग अच्छा है, दुर्जन का नहीं ।
लिखा है कि- मनुष्यत्व, मुमुक्षत्व और महापुरुषों का अंग ये तीनों ही ईश्वर प्राप्ति के साधन होने से दुर्लभ हैं । अतः महापुरुषों का ही संग करना चाहिये जैसे गली का गंदा पानी भी गंगा से मिलने पर देवताओं द्वारा पूजा जाता है । दुर्जन के संग से जगह-जगह पर मानहानि होती है । जैसे लोहे के संग से अग्नि भी घनों से पीटी जाती है । अतः सज्जन का संग ही सदा हितकारी है ।
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*सगुरा सत संयम रहै, सन्मुख सिरजनहार ।*
*निगुरा लोभी लालची, भूंचै विषय विकार ॥२७॥*
सुगुरा पुरुष सत्य व्यवहार करता है । प्रभु के सन्मुख रहकर भजन करता है । निगुरा पुरुष विषय विकारों को भोगता रहता है ।
(क्रमशः)

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