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*दादू जिहिं परसे पलटै प्राणियाँ, सोई निज कर लेह ।*
*लोहा कंचन ह्वै गया, पारस का गुण येह ॥*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु ---सेवा
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गोपालजी जयपुर राज्य के रहने वाले थे । उनकी साधुसेवा में बड़ी ख्याति थी । उन्ही के कुल में से एक मनुष्य विरक्त हो गया था, वह गोपालजी की परीक्षा के निमित उनके गांव के पास के वन में आया हुआ था । गोपालजी ने उनकी बड़ी सेवा की और प्रार्थना की कि एक दिन भोजन करने घर पधारें ।
विरक्त ने कहा - "हम स्त्री को नहीं देखते ।"
भक्त - "आप के आगे कोई भी स्त्री नहीं आयेगी ।" भोजन करते समय भक्त की स्त्री झरोखे से दर्शन करने लगी तब विरक्त ने गोपाल के गाल पर एक तमाचा मारा ।
गोपाल अपने मुख को फेरकर बोला - "भगवन ! एक ओर मार करके इस गाल को भी पवित्र कीजिये ।
तब प्रसन्न होकर विरक्त बोला - "ऐसे सहन-शील व्यक्तियों से ही कुल का उद्धार होता है ।" इससे सूचित होता है कि साधुसेवी में सहनशीलता होती है ।
सहनशीलता होत है, साधुसेवी के माँहि ।
गोपाल तमाचा खायकर, रुष्ट हुये लव नाँहिं ॥३४७॥
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