शनिवार, 6 फ़रवरी 2021

*१३. मन कौ अंग ~ १/४*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१३. मन कौ अंग ~ १/४*
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उन्मत गज कूं बसि करै, ऊपरि बैठै धाइ ।
केहरि१ कर स्यूँ गहति ले, पालै पोषै चाहि ॥१॥
{१. केहरि=केसरी(=सिंह)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यह मन उन्मत हाथी जैसा है इसके उपर बैठ कर इसे वश में करें । शेर को हाथ से पकड़ले इतना बल या आत्मशक्ति हो तब प्रभु शरण देकर पालन पोषण करते हैं ।
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भुजंग छल बल मंत्र करि, सकति खिलावै ताहि ।
कहि जगजीवन सब करै, पण मन बस किया न जाइ ॥२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सर्प जैसे जीव को भी छल से बल से मंत्र या शक्ति से वश में किया जा सकता है पर यह मन वश में नहीं रहता ।
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जगजीवन मन जोर बर२, कोटि कहै गुन ग्रंथ ।
माया तजि माया मिलै, लहै न हरि का पंथ ॥३॥
(२. जोर बर=अतिशय बलवान्)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यह मन बड़ा बलवान है । करोडों ग्रन्थों की व्याख्या कहता है, यह माया छोड़ने का स्वांग भी माया प्राप्त करने के लिये करता है । यह परमात्मा की राह पर नहीं चलता ।
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जगजीवन मन जोर बर, चंचल चूकै घाट ।
ग्यांन गरीबी दीन ह्वै, मुड़ै न हरि की बाट३ ॥४॥
(३. मुड़ै न हरि की बाट=भगवद्दर्शन के मार्ग की ओर नहीं घूमता)
संतजगजीवन जी यह मन बड़ा जबरदस्त है और इसी चंचलता में यह अपनी मुख्य मंजिल भूल जाता है । यह संतों से ज्ञान प्राप्त कर गरीबी व दैन्य भाव को अपना कर हरि मार्ग पर नहीं चलता है जो इसकी वास्तविक मंजिल है ।
(क्रमशः)

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