शनिवार, 6 फ़रवरी 2021

*३. शुकदेव*

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*जब मन मृतक ह्वै रहै, इन्द्री बल भागा ।*
*काया के सब गुण तजै, निरंजन लागा ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ लै का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*३. शुकदेव*
*कसि१ देख्यो महा कसषयो२ न कहूं,*
*शुक के मुख नैक न भेद दुनी को ।*
*स्वर्ग की पतनी३ सजके उतनी४,*
*चल आई जहां वन-वास मुनि को ॥*
*किये लावन५-रूप रिझावन को,*
*शुक के मुख वायक है जननी को ।*
*आगि को लागि कहा करै मांछर,*
*राघो कह सत शूर अनी को ॥७८॥*
काम सेना ने व्यास पुत्र शुकदेव जी की महा कठिन परीक्षा१ करके देखा किन्तु वे अपनी स्थिति से किंचित भी नहीं सरके२ । कारण-शुकदेव के मुख से तो सांसारिक भेद वाला एक भी वचन नहीं निकलता था अर्थात् वे तो अद्वैत स्थिति में ही रहते थे ।
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स्वर्ग की अप्सरायें३ सुन्दर श्रृंगार करके स्वर्ग से उतरी४ और जहां वन में शुक मुनि तपस्या कर रहे थे, चलकर वहां आ पहुँची तथा ...
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मनोहर५ रूप बनाकर शुक मुनि को रिझाने की अनेक चेष्टायें करने लगी किन्तु शुक मुनि तो अपने मुख से उन्हें-माताजी ही बोले, तब उनका बल शुक पर कुछ न चला ।
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ठीक है-अग्नि के पास लगकर अर्थात् जाकर मच्छर क्या करेगा? वैसे ही शुकदेव तो संतशूरों की सेना के अग्रभाग के सच्चे शूरवीर थे, उनका अप्सरादि काम सेना क्या कर सकती थी? वे सब निराश होकर लौट गई ।
(क्रमशः)

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