शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2021

*संसार मिथ्या है*

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*निश्‍चल करतां जुग गये, चंचल तब ही होहि ।*
*दादू पसरै पलक में, यहु मन मारै मोहि ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ मन का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(३)
दूसरे दिन सोमवार, ३१ दिसम्बर है । दिन का तीसरा पहर, चार बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ कमरे में बैठे हुए हैं । बलराम, मणि, राखाल, लाटू, हरीश आदि भक्त भी हैं । श्रीरामकृष्ण मणि और बलराम से कह रहे हैं –
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“हलधारी का ज्ञानियों जैसा भाव था । वह अध्यात्मरामायण, उपनिषद् – यही सब दिनरात पढ़ता था । इधर साकार की बातों से मुँह फेरता था । मैंने जब कंगालों के भोजन कर जानेपर उनकी पत्तलों से थोड़ा थोड़ा अन्न लेकर खाया, तब उसने कहा, ‘तेरे लड़कों का विवाह कैसे होगा ?’ मैंने कहा, ‘क्या रे साला, मेरे लड़के-बच्चे भी होंगे ! आग लगे तेरे गीता और वेदान्त पढ़ने में !’ देखो न, इधर तो कहता है – संसार मिथ्या है और फिर विष्णुमन्दिर में नाक सिंकोड़कर ध्यान !”
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शाम हो गयी है । बलराम आदि भक्त कलकत्ता चले गये हैं । श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में बैठे हुए माता का चिन्तन कर रहे हैं । कुछ देर बाद मन्दिर में आरती का मधुर शब्द सुनायी पड़ने लगा ।
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रात के आठ बज चुके हैं । श्रीरामकृष्ण भाव में आकर मधुर स्वर से माता के साथ वार्तालाप कर रहे हैं । मणि जमीन पर बैठे हुए हैं ।
श्रीरामकृष्ण मधुर कण्ठ से नामोच्चारण कर रहे हैं – “ हरि ओं ! हरि ॐ ! हरि ॐ !”
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माँ से कह रहे हैं – “माँ ! ब्रह्मज्ञान देकर मुझे बेहोश न कर रखना । मैं ब्रहमज्ञान नहीं चाहता माँ ! मैं आनन्द करूँगा ! विलाप करूँगा !”
फिर कहते हैं – “माँ, मैं वेदान्त नहीं जानता – जानना भी नहीं चाहता ! माँ, तुझे पाने पर वेद-वेदान्त कितने नीचे पड़े रहते हैं ।
“अरे कृष्ण ! मैं तुझे कहूँगा, ‘यह ले –खा ले - बच्चे !’ कृष्ण ! कहूँगा, ‘तू मेरे ही लिए देहधारण करके आया है ।’”
(क्रमशः)

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