शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2021

= *आचार उथेल का अंग १३७(१३/१६)* =

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*दादू देह जतन कर राखिये, मन राख्या नहीं जाइ ।*
*उत्तम मध्यम वासना, भला बुरा सब खाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*आचार उथेल का अंग १३७*
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रसोई रस सब पड़े, राक्षस रूप अहार ।
रज्जब रूते१ खाय करि, यो ही पाक२ अधार३ ॥१३॥
रसोई में सब रस पड़े हुये हैं, भोजन राक्षस रूप है अर्थात राक्षसों का-सा है ऐसे चुभने१ वाले अर्थात प्राणियों को दु:ख देने वाले भोजन को खाकर ही तुम पवित्र होने का अभिमान करते हो, यही२ तुम्हारे पवित्र३ होने का आधार है ?
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पाक१ पूर२ परहा३ रह्या, ताकी सुधि४ ना सार ।
रज्जब सो स्वप्ने नहीं, फूले फिरैं गँवार ॥१४॥
पवित्रता१ की पूर्णता२ तो परे३ रही, उसका ज्ञान४ भी नहीं है और उसकी सार संभाल तो स्वप्न में भी नहीं रखते फिर भी मूर्ख हम पाक हैं इस अभिमान में फूले फिरते हैं ।
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पाक१ अधारी२ एक को, जाके पाक३ अधार ।
रज्जब नर नापाक४ सब, नाम बिना संसार ॥१५॥
जिसका पवित्र३ प्रभु का आधार है, वह कोई एक ही पवित्रता१ का आश्रय२ लेने वाला होता है अर्थात पवित्र होता है, पवित्र प्रभु के नाम चिन्तन बिना संसार के सभी नर अपवित्र४ हैं ।
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रज्जब ॠद्धि१ रक्त ज्यों काढिये, ब्रह्माण्ड पिंड को पाछि२ ।
सो अहार सारै करैं, कहा पूछिये आछि३ ॥१६॥
जैसे शरीर के चीरा२ लगा कर रक्त निकाला जाता है, वैसे ही ब्रह्माण्ड के चीरा लगाकर अन्नादि संपत्ती१ निकाली जाती है अर्थात प्राणियों का रक्त चूस कर घन संग्रह किया जाता है, उसको सभी खाते हैं फिर पवित्रता४ की बात क्या पूछ रहे हैं ।
(क्रमशः)

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