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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१३. मन कौ अंग ~ २१/२४*
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पकड़ि लिया मन पाहरू, त्रिवेणी१ का घाट ।
बैठण कूँ पावै नहीं, जगजीवन इहिं बाट ॥२१॥
(१. त्रिवेणी=इडा, पिंगला, सुषुम्ना का संगमस्थल)
संतजगजीवन कहते हैं कि मन प्रहरी अब ईड़ा, पिंगला, सुषुम्ना नाड़ियों के वृत में आगया उनकी जागृति अब इसे विश्राम नहीं करने देती । मार्ग में रुकने नहीं देती ।
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मन की भांवड़ि२ कीजिये, जे मन भजै अनंत ।
कहि जगजीवन त्यागि सब, पिव पिव परसै कंत ॥२२॥
(२. भांवड़ि=परिक्रमा)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो मन निरंतर परमात्मा का भजन करता है उसकी तो परिक्रमा करनी चाहिये, ऐसे भक्त सब कुछ छोड़कर निरतंर भजन कर प्रभु को पा लेते हैं ।
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भाव भगति समझै नहीं, रांम बिमुख मन मूंछ३ ।
कहि जगजीवन टेढ हि रहसी, ज्यूं कूकर की पूंछ ॥२३॥
(३. मूंछ=अभिमानी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव भाव भक्ति कुछ समझता नहीं है प्रभु विमुख हो मन में अभिमान रखता है । वह हमेशा श्वान पूंछ की भांति सदा टेढा ही रहेगा ।
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कहि जगजीवन कोटि मन, रांम बिमुख किंहि कांम ।
निज मन मांहीं मिल रहै, मन सोइ गावै नांम ॥२४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन के करोड़ों रुप हैं किंतु प्रभु विमुख सब व्यर्थ है । प्रभु तो स्मरण से मन में ही मिल जाते हैं ।
(क्रमशः)

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