सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

(“अष्टमोल्लास” ५५/५७)

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स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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(“अष्टमोल्लास” ५५/५७)
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*भिन्न भाव अन्तर नहीं काई,*
*गुरु सिष भाव सदा उरि होई ।*
*कुंजी अंड तजि जाय प्रदेसा,*
*तामैं सुरति जु रहे हमेसा ॥५५॥*
अर्थात् शिष्य के हृदय में गुरु का ध्यान रहता है, और गुरु भी शिष्य का पूर्ण रूप से हृदय से हित चाहते ही रहते हैं । जैसे कुंज पक्षी बहुत दूर प्रदेश में रहती है किन्तु अंडे का ध्यान उसके मन में निरन्तर सेता रहता है ॥५५॥
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*कुंजी दूरि दूरि रहै अंडू,*
*अन्तर भाव करे नहीं खंडू ।*
*पुष्ट के अंड सुरति के माही,*
*गुरु सिष ऐसे राम मिलांही ॥५६॥*
कुंजी दूर दूर प्रदेशों में रहती है किन्तु उसकी अन्तर्भावना मन अंडों के साथ रहता है जिससे उसके अंडे पकते हैं । वैसे ही गुरु की सुरति द्वारा शिष्य सिद्धावस्था को प्राप्त होता है । अर्थात् अज्ञान दूर करके ब्रह्म साक्षात्कार करता है ॥५६॥
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*भिन्न भिन्न करि किया निषेदू,*
*पर उपगार जु वरनौ भेदू ।*
*स्वामी कही सु संतनि भाई,*
*तबे चलन की साज बनाई ॥५७॥* 
उक्त प्रकार दादूजी ने परोपकार तथा गुरु शिष्य संबंधी विचार भिन्न भिन्न प्रकार कहकर ज्ञान दास आदि सभी को समझाया फिर तो दादूजी का कथन सबको प्रिय लगा । तब दादूजी महाराज ने प्रस्थान करने की तैयारी की ॥५७॥
(क्रमशः)

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