सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

*१३. मन कौ अंग ~ ५७/६०*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१३. मन कौ अंग ~ ५७/६०*
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जे चित वाणी होयगी, सो मुख रसन झरंत ।
कहि जगजीवन भजन सौं, कारज सकल सरंत ॥५७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो वाणी चित में होगी वैसा ही उच्चारण होगा, इस जिह्वा रुपी बहन से ही यश अपयश जैसे सभी काज होते है ।
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जे चित मांहै राखिये, सो मुख करै प्रकास ।
कोई रांमा५ कोई रांमजी, सु कहि जगजीवनदास ॥५८॥
(५. रांमा=स्त्री )
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जैसा चित में ध्यान होगा वह ही मुख से निकलेगा । कोइ स्त्री की महिमा करेगा तो कोइ भगवद् स्वरूप का गुणानुवाद करेंगें ।
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कहि जगजीवन रांमजी, मन तूंबी६ तन मांहि ।
कर छिटक्यां जल मैं फिरै, अंग मंहि भेटै नांहि ॥५९॥
(६. तूंबी=जलपात्र)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन रुपी पात्र रामनाम रुपी जल से भरा है यदि अपने हाथों उसे बाहर उलट देंगे तो वह फिर देह को स्पर्श कर सुधार नहीं पायेगा ।
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जे मन रहे तो मन बड़ा, चलै तो आगे अंग ।
कहि जगजीवन कोई लहै, रांम भगति सो रंग ॥६०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो मन प्रभु शरण में रहे वह ही बड़ा है । जिसके आदेशानुसार यह सारे अंग कार्य करते हैं । इनमें कोइ विरला ही है जो प्रभु भक्ति के रंग में रंगा रहता है ।
(क्रमशः)

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