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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ सजीवन का अंग २६ - २६/२९)*
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*दादू मरणे को चला, सजीवन के साथ ।*
*दादू लाहा मूल सौं, दोन्यौं आये हाथ ॥२६॥*
जो साधक जीवन काल में ही प्रभु को भजकर अपने हृदय में प्रभु को प्राप्त करके यदि मर जाता है तो उसका जीवनरूप मूलतो सफल हो जाता है तथा भक्तिरूपी लाभ भी प्राप्त होता है । अतः हरिभजन में उभयथा लाभ ही लाभ है ।
अध्यात्मरामायण में लिखा है कि- जन्ममरण आदि छह विकारों को जो शरीर में ही देखता है, आत्मा में नहीं तथा क्षुधा प्यास सुख दुःख भय आदि को प्राण और बुद्धि के ही विकार जानता है और स्वयं सांसारिक धर्मों से अतीत रहता है । उसके मन में सदा आप निवास करते हैं । इससे भक्त का जीवन सुधर जाता है और उसके हृदय में भगवान् सदा विराजते हैं अतः भक्त को हरिभजन में दोनों तरफ से लाभ ही लाभ है ।
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*॥ करुणा ॥*
*दादू जाता देखिये, लाहा मूल गँवाइ ।*
*साहिब की गति अगम है, सो कुछ लखी न जाइ ॥२७॥*
जो सांसारिक पुरुष हैं वे अपने जीवन को विषय विकारों के द्वारा ही समाप्त कर लेते हैं । कोई लाभ इस जीवन से नहीं उठा सके । बडा ही कष्ट है, क्या कहें, भगवान् की यह माया भ्रम जाल में डालने वाली बडी विलक्षण है । जिससे सभी प्राणी मोहित हो रहे हैं और अपने जीवन का लाभ नहीं लेते और दुःख पाते हैं, परन्तु सावधान नहीं होते ।
सुभाषित में लिखा है कि- किसी पर भी हमने क्षमा नहीं करी । गृहोचित सुखोपभोग को भी त्यागना पड़ा लेकिन संतोष से नहीं त्यागा और दुःसह शीत उष्ण आदि दुःखों को सहन किया लेकिन तप से नहीं । दिन रात धन का ही ध्यान किया लेकिन प्राणों का निरोध करके कभी शंकर का ध्यान नहीं किया । दुःख है कि कार्य तो जो मुनि लोग करते हैं वे ही हमने भी किये, परन्तु उन कर्मों के फल से वंचित ही रहे ।
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*॥सजीवन॥*
*साहिब मिलै तो जीविये, नहीं तो जीवै नांहि ।*
*भावै अनंत उपाय कर, दादू मूवों मांहि ॥२८॥*
इस मनुष्य जन्म में ही यदि प्रभु प्राप्त हो जाते हैं तो वह जीवन, जीवन है । अन्यथा वह जीवन मृत्युतुल्य है । अनन्त यज्ञादि कर्मों के करने से भी कोई लाभ नहीं क्योंकि वे स्वर्गप्राप्ति के उपाय जरुर हैं, फिर भी उनसे प्राप्त होने वाले स्वर्गों को जो बड़े विशाल हैं, उनको भोग कर फिर मनुष्यलोक में आना पडता है । अतः वे भी व्यर्थ ही है । उनकी प्राप्ति से भी जीवन की सफलता नहीं मानी जाती ।
लिखा है कि- इस जीवन में निवास के लिये बडे-बडे सुवर्णमय महल हैं । सुनने के लिये अच्छे अच्छे गाने हैं । प्राणों के आने जाने से जो सुख होता है उससे बढकर कोई सुख नहीं । फिर भी संत जन इन सब सुखों को हवा से हिलते हुए दीपक की छाया की तरह जिसमें पतंगें सुख की अभिलाषा से आकर गिरते हैं और मर जाते हैं । मिथ्या समझकर सबको त्याग कर वन में चले गये ।
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*सजीवनि साधै नहीं, तातैं मर मर जाइ ।*
*दादू पीवै राम रस, सुख में रहै समाइ ॥२९॥*
जिन्होंने भक्तिरूपी संजीवनी विद्या नहीं साधी, वे बार-बार जन्मते मरते हैं । अतः भक्ति के राम रस पान के सुख में समा जावो ।
वल्लभाचार्यजी ने लिखा है कि- जिन उपायों से भक्ति की वृद्धि होवे वह उपाय में बतला रहा हूं, बीज भाव के दृढ़ होने से और भगवान् के यश लीला आदि के श्रवण कीर्तन से भक्ति की वृद्धि होती है ।
बीज भाव की दृढ़ता का उपाय यह है कि- व्यसन हो जाता है तब बीज की दृढ़ता होती है । शास्त्र में उसी बीज को दृढ़ बतलाया गया है, जो कभी नष्ट न हो । भगवान् में स्नेह हों इसे लौकिक राग वृत्ति का नाश होता है । भगवान् में आसक्ति होने से गृहस्थाश्रम से विरक्ति हो जाती है । भगवान् की सेवा पूजा कथा श्रवण आदि में जिसकी आसक्ति दृढ़ हो जाती है उसका कभी नाश यानि पतन नहीं होता ।
(क्रमशः)

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