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*राहु गिलै ज्यों चंद को, ग्रहण गिलै ज्यों सूर ।*
*कर्म गिलै यों जीव को, नख-सिख लागै पूर ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*आचार उथेल का अंग १३७*
इस अंग में आचार से विपरीत विचारों का प्रदर्शन कर रहे हैं ~
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चाकी चूल्है लीपतां, दीपक पाणी पात१ ।
जन रज्जब जीवै मरे, ये षट् कर्म षट् घात२ ॥१॥
चक्की में, चूल्हा में, लीपते समय दीपक पर, जल के स्थान में, ऊंखल में मूसल के पड़ने१ से, इन छ: स्थानों में जीव मरते हैं, ये छ: कर्म ही छ: प्रकार के प्रहार२ हैं ।
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एक कर्म सौं भाजिये, ये दीसै षट् कर्म ।
रज्जब करै सु कौन विधि१, लह्या धर्म का मर्म२ ॥२॥
एक कर्म से तो दूर भागा जा सकता है किंतु ये तो छ: कर्म दीख रहे हैं इनसे दूर भागने के लिये क्या युक्ति१ करें ? आचार-धर्म का रहस्य२ हमने जान लिया है, इसमें रहते पाप से मुक्त होना कठिन है ।
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चींटी दश चौके मरैं, घुण दश हांडी मांहिं ।
जन रज्जब इस शुची१ में, बरकत२ दीसै नांहिं ॥३॥
दश चींटी चौका लगते मर जाती हैं और दश घुण हँडिया में सीझ जाते हैं, इस शुद्धि१ में तो अधिकता२ कुछ नहीं दीखती ।
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करै आचार विचार बिन, सिल१ दिल बैठी आय ।
रज्जब उपजै कर्म षट्, करम करम घर जाय ॥४॥
बिना विचार के आचार करने वाले के मन में तो क्षय१ रोग आ बैठता है, उससे उक्त छ: कर्मो द्वारा पाप कर्म होते ही रहते हैं, फिर जैसे क्षय रोगी क्रम क्रम से क्षीण होकर मृत्यु के मुख में जाता है, वैसे ही आचार वाला क्रम क्रम से पाप रूप घर में जाता है ।
(क्रमशः)

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