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स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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(“अष्टमोल्लास” ५२/५४)
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*श्री दादू जी ज्ञान माणक को समझाया*
*अब तो स्वामी कहीन जावे,*
*मन में इहि जु संग रहावे ।*
*ज्ञानवान तुम्ह कहा बखानो,*
*जैसे बालक कहै अयानूं ॥५२॥*
स्वामिन् आपकी आज्ञा को भंग करने की बात हमारे मुख द्वारा तो नहीं कही जा रही है, किन्तु हमारे मन में तो यही है कि हम आपके साथ ही रहे । तब स्वामी दादूजी ने कहा, तुम तो ज्ञानवान हो फिर भी अनजान बालक के समान क्या कह रहे हो ॥५२॥
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*संत आप तो तिरे हैं ओरों को भी तारते हैं*
*सदा उपगार सुकीजे भाई,*
*प्रसन्नता पर है राम राई ।*
*एक मनिष आपन तर जावै,*
*पर उपगारी और लखावै ॥५३॥*
भाईयों जो सदा पर उपकार करते रहते हैं उन पर ही विश्व के राजा राम जी प्रसन्न होते हैं । एक मानव तो साधना करके अपना उद्घार करता है, और एक परोपकार परायण रहकर अन्य को भी परमात्मा का दर्शन कराने का प्रयत्न कर रहा है वे दोनो कैसे बराबर हो सकते हैं ॥५३॥
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*उभै मनिष कैसे सम होई,*
*वो परमारथ वो स्वारथ सोई ।*
*सिष परदेस रू गुरु दिसंतर,*
*अरस परस सदा उरु अन्तर ॥५४॥*
वे दोनों मनुष्य कैसे बराबर हो सकते हैं, कारण उनमें से एक स्वार्थी और एक परमार्थी है । लोक वेद में परमार्थी को ही महान कहा है स्वार्थी को नहीं । यदि शिष्य से गुरु दूर प्रदेश में हो तो भी दूर नहीं होता कारण हृदय में तो दोनों सदा अरस परस मिलते ही रहते हैं ॥५४॥
(क्रमशः)
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