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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१३. मन कौ अंग ~ ५३/५६*
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जगजीवन कहि रांमजी, जहां रस उपजै नांम ।
तहों मन मनसा नां रहै, कुबुद्धि६ चुकावै ठांम ॥५३॥
{६. कुबुधि=कुबुद्धि(दुष्टबुद्धि)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जहाँ बैठकर भजनांनंद की अनुभूति हो वहां मन विश्राम नहीं करता है । वह तो कुबुद्धि का संग करता है जिसकी पतन रुपी कीमत चुकानी पड़ती है ।
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भांमणि७ का भरणां८ भरै, घर का सांचा ठोलि ।
जगजीवन मन बहुचरी, चल्या कांथड़ी९ बोलि ॥५४॥
(७. भांमणि=भामनी, सुन्दरी स्त्री) (८. भरणां=पालन पोषण । छिद्र)
(९. कांथड़ी=इस नाम का एक नाथ-सिद्ध)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव माया रुपी स्त्री का तो पालन पोषण षूब करता है और जो वास्तव में उसका सच्चा ठिकाना है प्रभु का घर उसे टालता रहता है । संत कहते हैं कि यह मन बहुत भांति के आचरण करता है । ऐसा सभी सिद्ध व नाथ कहते हैं ।
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जगजीवन सब थैं रहै, मन ऊँचा भजि नांम ।
नीचा आवै निमख१ मैं, जे चित आवै कांम ॥५५॥
{१. निमख=निमिष(=क्षण)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यह मन स्मरण करके सबसे श्रेष्ठ हो जाता है पर जब मन में काम वासना आती है तो एक क्षण में यह पतनोन्मुख हो जाता है ।
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जहां कांम२ तहां नांम३ नहीं, नांम तहां नहीं कांम ।
कहि जगजीवन मिलि रहे, जग४ रांमा जन रांम४ ॥५६॥
(२. कांम=वासना) (३. नांम=भगवान् का नाम) (४-४. जगत् स्त्रियों के साथ विषयभोग में लिप्त हो गया, तथा भक्त जन रामभजन में)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जहाँ प्रभु का काम है वहां नाम की कोइ अहमियत नहीं है । और जहाँ प्रभु जी का नाम है वहां वहां काम गौण है । ये ऐसे है कि संसार तो काम में लिप्त हो स्त्री अनुगामी है व भक्त जन प्रभु शरण में राम भजन में मस्त है जो कल्याणकारी भी हैं ।
(क्रमशः)
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