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*स्वारथ सेवा कीजिये, ताथैं भला न होइ ।*
*दादू ऊसर बाहि कर, कोठा भरै न कोइ ॥*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु ---साधना
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जयपुर के समीप झोटवाड़ा गांव के जंगल में एक आम के वृक्ष के नीचे बहुत समय से एक तपस्वी कठोर तपकर रहा था । जयपुर के राजा रामसिंह जी प्राय: प्रजा की देखरेख के लिये, अकेले ही धूमा करते थे। जब जब उस तपस्वी की ओर जाते थे, तब तब कठोर तप में स्थित देखते थे ।
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एक दिन रामसिंह तपस्वी के पास आकर बोले - "आप ऐसा कठौर तप क्यों कर रहे हैं ?"
तपस्वी- "तुम क्यों पूछते हो ?"
राजा - "कदाचित मैं भी आपका सहायक हो सकूं ।"
तपस्वी- नहीं नहीं तुम्हारे वश की बात नहीं ।"
राजा- "नहीं हो तो भी सत्य सत्य बता दें ।"
तपस्वी - "मेरी इच्छा है कि मैं अगले जन्म में सांड बनूं और इच्छानुसार गोगण से रमण करता रहूँ ।"
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यह सुनते ही राजा रामसिंह जी धूल की अंजली भर के दो कदम पीछे हट गये और यह कहते हुए कि धूल तेरे सिर में, सिर में धूल डाल कर चले गये । इससे ज्ञात होता है कि तुच्छ भोगों के लिये कठोर तप करना परम भूल है ।
तुच्छ भोग हित साधना, कठिन करे अति भूल ।
रामसिंह नृप ने तजी, तापस के सिर धूल ॥१५६॥

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