सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

*१३. मन कौ अंग ~ ३३/३६*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१३. मन कौ अंग ~ ३३/३६*
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माया की बुनियाद२ कहा, जे मन राखै रोक ।
जगजीवन तन मांहि हरि, नित प्रति लीजै कोक ॥३३॥
(२. बुनियाद=जड़, या आधार)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि माया में इतनी आधार भूत शक्ति नहीं है कि मन को रोक कर रख ले संत कहते हैं प्रभु तो देह में ही विराज रहे हैं । उन्हें नित्य पुकारते रहें ।
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काहे मन चंचल करै, आतम अस्थली राखि ।
जगजीवन परिहरि बिषै, चरन कंवल रस चाखि ॥३४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन को क्यों चंचल करते हो इसे इसे आतम स्थान में रखे । विषय विष को छोड़कर चरण कमल का रस पान करें ।
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काहे घर ऊजड़३ करै, काहे कतहूँ जाइ ।
जगजीवन बसती रिदै, हरि भजि रहिये आइ ॥३५॥
(३. ऊजड़=निर्जन)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इधर उधर मन को दौड़ा कर स्वंय के मन रुपी घर को क्यों सूनसान करते हो । सारी बस्ती मन में ही परमात्मा का सानिध्य मन में ही है अतः वहां ही रहिये ।
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विरह प्रेम बैराग बिना, मन क्यूँ जागै सूंनि ।
जगजीवन बोलै नहीं, अरु जे गहि ले मूंनि ॥३६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रेम संसार से वैराग्य के बिना ये मन शून्य की और कैसे उद्यत होगा । यह शांत हो जाये मानो मौन धारण कर रखा हो तभी यह शून्य में स्थित प्रभु को पा सकेगा ।
(क्रमशः)

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