शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

पारिख का अंग २७ - १८/२०

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ पारिख का अंग २७ - १८/२०)*
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*कर्मों के वश जीव है, कर्म रहित सो ब्रह्म ।*
*जहँ आत्म तहँ परमात्मा, दादू भागा भ्रम ॥१८॥*
यह जीव कर्मों के वश में हैं और ब्रह्म तो सर्वशक्ति नित्य शुद्ध बुद्ध स्वभाव वाला शरीर आत्मा से भिन्न है और कर्मों से कभी बंधता नहीं । यद्यपि दोनों का ऐक्य वेदान्त में बतलाया है । फिर भी यह जीवात्मा अविद्या द्वारा उत्पन्न नामरूप कृत जो कार्यकारणभाव रूप उपाधि है । उस उपाधि का विवेक न होने से हित अहित कर्म करके संसार में आ जाता है ।
यह जीव का संसार भी अविद्याकृत होने से मिथ्या ही है । इसलिये भी जीव ब्रह्म से भिन्न प्रतीत होता है कि जब तक भेद बाधित नहीं होता तब तक यह जीव ब्रह्म की उपासना करके उसको जानता है । लेकिन परमात्मा से इस शारीरात्मा का तत्त्व से भेद नहीं है । भले ही जीवात्मा अपने को परमात्मरूप न माने लेकिन परमात्मा तो सर्वज्ञ होने के कारण सब आत्माओं को अपने से अभिन्न समझता है और यह जीव भी ब्रह्म की उपासना करके भ्रम निवृत्ति द्वारा परमात्मा को प्राप्त करके मुक्त हो जाता है ।
महाभारत में लिखा है कि- इस लोक में किये हुए शुभ अशुभ कर्मों का कल भोगे बिना नष्ट नहीं होता है । ये कर्म जैसे जैसे कर्मानुसार(एक के बाद एक) शरीर धारण करवा कर अपना फल देते रहते हैं । पूर्व जन्म के शरीर से जो शुभ अशुभ कर्म का करता है उसे अवश्य भोगना पडता है । उपभोग से प्राचीन कर्म तो क्षीण हो जाते हैं लेकिन नये नये कर्मों का संचय बढ़ जाता है । अतः जब तक मोक्ष की प्राप्ति में सहायक धर्म का उसे ज्ञान नहीं होगा तब तक कर्मों की परम्परा टूटती नहीं है । अतः जीव ब्रह्म के भेद में कर्म ही कारण हैं और जीव उसकी उपासना करके कर्ममुक्त होकर ब्रह्म से एक हो जाता है ।
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*॥ पारिख अपारिख ॥*
*काचा उछलै ऊफणै, काया हाँडी मांहि ।*
*दादू पाका मिल रहै, जीव ब्रह्म द्वै नांहि ॥१९॥*
जैसे मिट्टी से बने घडे में अपक्व अन्न अग्नि के ताप से कभी ऊपर कभी नीचे जाता है अर्थात् उफनता है वैसे ही यह जीव भी शरीराभिमान के कारण लोकान्तरों में आता जाता रहता है । जब ज्ञानाग्नि में इसके सारे कषाय पक जाते हैं जब ब्रह्म से अभिन्न होकर शान्त हो जाता है ।
लिखा है कि (विवेक चूडामणि में)- यह प्रबल अहंकार मूल से नष्ट कर देने पर भी एक क्षणमात्र में चित्त का संपर्क होते ही पुनः प्रकट होकर सैकडों विक्षेपों को खडे कर देता है जैसे वर्षा काल में वायु से प्रेरित मेघ वर्षा बरसाता है ।
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*दादू बाँधे सुर नवाये बाजैं, एह्वा शोध रु लीज्यो ।*
*राम स्नेही साधु हाथे, वेगा मोकल दीज्यो ॥२०॥*
जो जितेन्द्रिय निरहंकारी तथा हाथ जोड़कर नम्रभाव से भगवान् का भजन करने वाला साधक हो, उस को ज्ञान धन देना चाहिये, जो गुरु के आदेशानुसार व्यवहार करता है अर्थात् पहले तितिक्षा के द्वारा शिष्य की परीक्षा करके शरण में आये हुए शिष्य को उपदेश करना चाहिये । इस पद्य से गुजरात से अपने शिष्य जग्गाजी को कहा था कि मंजीरों की जोडी जो अच्छे बजने वाले तथा दीखते सुन्दर हो, किसी प्रभु भक्त के हाथ हमारे लिये भेज देना, यह आदेश दिया था ।
(क्रमशः)

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