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*दादू साध सबै कर देखना, असाध न दीसै कोइ ।*
*जिहिं के हिरदै हरि नहीं, तिहिं तन टोटा होइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*नितिज्ञ का अंग १३९*
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रज्जब एक न कीया एक ने, प्राण रु पंचों तत्त ।
तो द्वै घट क्यों एक ह्वैं, भानि१ अविगत२ मत्त३ ॥३७॥
उस एक प्रभु ने एक रचा ही नहीं, पांच तत्त्व और पांच ही प्राण रचे हैं तब उस प्रभु२ के मत३ को तोड़१ कर दो शरीर एक कैसे हो सकते हैं ?
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साधू इन्द्री नासिका, च्यारों इन्द्री चोर ।
रज्जब कटे कुसंग मिल, नहीं न्याय की ठोर ॥३८॥
साधु नासिका इन्द्री के समान है, अन्य चारों इन्द्रिय चोर के समान हैं, गड़बड़ चारों इन्द्रिय करती हैं किंतु कुसंग से काटी जाती है नासिका, वैसे ही गड़बड़ तो चोर करते हैं और दंड साधु को दिया जाता है, तब समझना चाहिये वह स्थान न्याय का नहीं है ।
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जेती१ उपजै आप में, तेती२ अपने शीश ।
जन रज्जब ह्वै गैब की, सो सिरजी जगदीश ॥३९॥
जितनी१ बात अपने अंत:करण में उत्पन्न हुई है, उतनी२ का भला बुरा परिणाम अपने शिर पर ही आता है और जो घटना अकस्मात घट जाती है वह ईश्वर की उत्पन्न करी हुई है, ऐसा ही मानना चाहिये ।
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रज्जब भाव भूख भय करि भखै१, भोजन मुर२ मरजाद ।
दोन्यों में तीन्यों नहीं, क्यों करि ह्वै सु प्रसाद ॥४०॥
भाव, भूख और भय, इन तीन२ से भोजन खाया१ जाता है, ऐसी ही नीतिज्ञों की मर्यादा है । खिलाने वाले और खानेवाले इन दोनों में ही यदि भाव, भूख भय ये तीनों नहीं हैं तो फिर भोजन कैसे हो सकता है ।
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित नीतिज्ञ का अंग १३९ समाप्तः ॥सा. ४४२०॥
(क्रमशः)

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