मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

पारिख का अंग २७ - २८/३२

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ पारिख का अंग २७ - २८/३२)*
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*॥ कर्त्ता कसौटी ॥*
*खोटा खरा परखिये, दादू कस-कस लेइ ।*
*साचा है सो राखिये, झूठा रहण न देइ ॥२८॥*
ईश्वर भी निष्कामी सज्जन भक्त की तथा दुर्जन की परीक्षा कर के सज्जन पर कृपा करते हैं दुर्जन पर नहीं, उसको तो प्रत्युत दण्ड देते हैं । अतः सज्जन का ही संग उपादेय है । लिखा है कि-
आनन्दरूपी मृग को दावाग्नि की तरह जलाने वाला शील वृक्ष को उखाडने के लिये उन्मत्त हाथी की तरह ज्ञान दीपक को नष्ट करने के लिये महावायु की तरह दुर्जन का संग माना गया है ।
असत् के संग से गुणवान् भी विषयासक्त हो जाता है । जैसे गायन सुनने में अनुरक्त मृग शिकारी द्वारा मारा जाता है । सत्पुरुषों का संग सब की उन्नति करने वाला है । जैसे कमल के पत्ते पर पडा हुआ पानी मोती की शोभा वाला होता है । अतः दुर्जन के संग को छोड सज्जन का संग ही उपादेय है ।
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*॥ पारिख अपारिख ॥*
*खोटा खरा कर देवै पारिख, तो कैसे बन आवै ।*
*खरे खोटा का न्याय नबेरे, साहिब के मन भावै ॥२९॥*
कोई परीक्षक यदि असत्य पदार्थ को भी सत्य बतलाता है और सत्य को असत्य कहता है तो वह सच्चा परीक्षक नहीं माना जायगा । किन्तु वह तो दाम्भिक ही है । न प्रभुप्रिय है और न न्यायकारी है । किन्तु जो सत्य को सत्य और असत्य को असत्य बतलाता है परीक्षा कर के वह ही सच्चा परीक्षक है तथा प्रभुप्रिय और न्यायकारी है ।
ऐसे ही आत्मा को सत्य स्वरूप सुख और और प्रिय स्वरूप जानकर उसी में प्रेम करना चाहिये । संसार के असत्य पदार्थों की प्रीति तो सर्वाधिक और अस्थिर है ।
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*दादू जिन्हें ज्यों कही, तिन्हे त्यों मानी, ज्ञान विचार न कीन्हा ।*
*खोटा खरा जीव परख न जानै, झूठ साच करि लीन्हा ॥३०॥*
स्वार्थपरायण लोगों ने अज्ञानियों को जैसा उपदेश दिया वैसा ही निर्णय किये बिना उसको स्वीकार कर लिया, और स्वयं अज्ञ होने से सत्यासत्य का निर्णय करने में वे असमर्थ है । इसीलिये मिथ्याभूत संसार को सत्य मान कर इसी में डूबे हुए हैं । न ज्ञान प्राप्त करके निवृत्ति को प्राप्त करते हैं ।
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*॥ कर्त्ता कसौटी ॥*
*जे निधि कहीं न पाइये, सो निधि घर-घर आहि ।*
*दादू महँगे मोल बिन, कोई न लेवे ताहि ॥३१॥*
इस परमात्मा को अज्ञानी विषयों में खोजता हुआ भी हजारों-हजारों वर्ष से भी प्राप्त नहीं कर सकता । वही परमात्मा धन प्राणि मात्र में अव्यक्त रूप से स्थित है परन्तु साधन मूल्य दिये बिना प्राप्त नहीं हो सकता । जिन्होंने साधन किया उन्होंने उसको प्राप्त कर लिया । अतः साधक को साधननिष्ठ होना चाहिये ।
यह पद्य प्रासंगिक है-
प्रसंग कथा यह है कि जब श्री दादूजी महाराज सीकरी नगरी से पधार रहे थे तब इनके साथ में बहुत से महात्मा आ रहे थे और जब दौसा नगर में आये तो भोजन के लिये भिक्षा मांगने को शहर में गये और घर घर पर भिक्षा मांग रहे हैं । लेकिन कहीं भी उनको भिक्षा नहीं मिली । उस समय शिक्षा देने के लिये यह साखी कही थी ।
इसका भाव यह है कि- जैसे यह महात्मा भिक्षा के लिये घर-घर पर जाते हैं । लेकिन शहरी लोगों को इनका ज्ञान न होने से भिक्षा देकर इनका सत्कार और अपना कल्याण प्राप्त नहीं कर रहे हैं ऐसे ही परमात्मा भी प्रति प्राणी के शरीर में रहता है परन्तु ज्ञान न होने से अज्ञानी उसको प्राप्त करके कल्याण नहीं प्राप्त नहीं कर सकता ।
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*खरी कसौटी कीजिये, वाणी बधती जाइ ।*
*दादू साचा परखिये, महँगे मोल बिकाइ ॥३२॥*
परीक्षकों से परीक्षित रत्न यदि सच्चा रत्न हो तो उसकी कीमत बढ जाती है । वह अमूल्य हो जाता है । ऐसे ही साधक भी परीक्षा में उत्तीर्ण होकर महिमा को प्राप्त होता है । महापुरुष भी उस का समादर करते हैं । परमात्मा भी उस पर प्रसन्न होता है उस की सत्यता को देख कर ।
(क्रमशः)

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