गुरुवार, 11 फ़रवरी 2021

(“अष्टमोल्लास” २५/२७)

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स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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(“अष्टमोल्लास” २५/२७)
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*राज न करै, सु सूझे चरणों,*
*गुरु गोविंद का लीया सरणों ।*
*स्वामी साखि विचारी दोई,*
*रेति दुखी राजा बिन होई ॥२५॥*
हम राज कैसे कर सकेंगे ! हमारे कंधे पर तो मृत्यु नाचती हुई हमें दीख रही है । इसीलिये हमने गुरु और गोविंद की शरण ली है । फिर स्वामी दादूजी ने साक्षी रूप से दोनों का ही विचार किया कि राजा बिना प्रजा दुखी होगी । अत: राज्य व्यवस्था जरूरी है ॥२५॥
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*पति बिना कहां सों नारी,*
*बिना नृप सो रैति दुखारी ।*
*बसंत जाई ज्यावधरी राखै,*
*दासा तन के बचन सु भाखै ॥२६॥*
जिस प्रकार पति के बिना नारी दुखी होती है उसका नारित्व नहीं होता उसी प्रकार बिना राजा के प्रजा दुखी रहती है । इसलिये दादूजी ने कुमार बसंत को ज्यावधरी राज्य के रक्षा के लिये रखते हुये उससे कहा कि सेवक भावपूर्वक राज करो ऐसे वचन कहे ॥२६॥
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*श्री दादूजी ने कुमार बसंत को राजनीति समझाई*
*जैसे सीप समंद रहावे,*
*स्वांति बूंद सूं प्रीति बढावे ।*
*सरोज रहे, सरवरहिं मंझारी,*
*नित प्रति चंद प्रीति अधिकारी ॥२७॥*
फिर दादूजी ने वचन कहे- जैसे मुक्ता सीप समुद्र में रहती है किन्तु उसका प्रेम स्वाति बूंद पर ही होता है । कमल भी सरोवर में रहता है किन्तु चन्द्रमुखी कमल का प्रेम चन्द्रमा से और सूर्य मुखी कमल का प्रेम सूर्य से होता है ॥२७॥
(क्रमशः)

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