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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१३. मन कौ अंग ~ २९/३२*
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चित चंचल मनसा चपल, मन रिंद५ मांहै खोटि६ ।
कहि जगजीवन नांउँ भजि, रहै न हरि की वोटि७ ॥२९॥
(५. रिंद=स्वेच्छाचारी) {६. खोटि=कमी(न्यूनता)}
{७. वोटि=परदा(आवरण)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यह चित चंचल है, मन की आशायें थिर नहीं है, इस स्वेच्छाचारी मन में खोट भरा है ऐसे में नाम भजने से भी प्रभु का सहारा नहीं मिलता क्योंकि मन तो संसार में रहता है और भजन हम प्रभु का करते हैं तो वह कैसे मिलेंगे उसके लिये तो एकाग्र समर्पण चाहिये ।
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जगजीवन धीरज नहीं, कहि क्यों धापै८ सोइ ।
चित चंचल चहुं दिस भ्रमै, यह दुख व्यापै मोहि ॥३०॥
(धापै=तृप्त हो, सन्तुष्ट हो)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन में धैर्य न होने से वह संतुष्ट नहीं होता । मुझे यह ही दुःख है कि यह चारों दिशाओं में भागता रहता है स्थिर नहीं है ।
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रे नर तैं कछु बात कौं, काहे करै उपाधि ।
जगजीवन संतोष गहि, सबद सुरति मन साधि ॥३१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे जीव छोटी सी बात के करने को इतनी बड़ी उपिधि देकर काहे का दिखावा करता है । स्मरण ध्यान कर और संतोष धारण कर ।
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जगजीवन मन विकारी, बिखरि जाइ विष खाइ ।
दिन दिन दूणी१ कल्पना, क्यूं हरि परसै ताहि ॥३२॥
(१. दूणी=द्विगुण)
संत जग जीवन जी कहते हैं यह मन विकार युक्त है यह मायिक विष ग्रहण करने को ही फैल जाता है । यह तो संसारिक कल्पनाओं में ही खोया रहता है फिर इसे परमात्मा कैसे मिलेंगे ।
(क्रमशः)

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