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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१२. चितावणी कौ अंग ~ ७७/८०*
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कहि जगजीवन पढ़्या नहीं, जेरु पढ्या तो कांम ।
सो बांणी उपजीं नहीं, जा थैं रीझै रांम ॥७७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो जीव का सच्चा ज्ञान तभी सार्थक है जब ऐसी वाणी मति में आये जिससे प्रभु प्रसन्न हों ।
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सत संगति मंहि जे गुण्या, तिनका अमरस८ नीर ।
कहि जगजीवन सूझ्या, हरि बूझ्या करि सीर ॥७८॥
(८. अमरस=अमृत रस)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो सत्संगति में विचार आये हैं वे अमृत के समान है जब हम इस अमृत को पहचानने लगे तो परमात्मा भी हमारे संगी हो गये ।
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जैसे मंदिर१ कांच को, सुंनिहो२ पैठ्यो आइ ।
जगजीवन प्रतिबिम्ब कों, उठि उठि लागै धाइ ॥७९॥
(१. मंदिर कांच को=शीशमहल) (२. सुनिहो=कुत्ता)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जैसे शीशे के भवन में यदि श्वान बैठ जाये तो वह अपने प्रतिबिंब को देखकर ही भौंक भौंक कर थकता है ऐसे ही जीव है ये अपनी झूठी छाया को ही सब जान कर उसी से स्नेह करता है । व उसी के लिये यत्न करता है जिसने उसे बनाया है उस परमात्मा को भूलता है ।
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अैसैं दुनियाँ आप सूं, वैर करे विष खाइ ।
जगजीवन दुरमति३ ह्रिदै, नूर न भासै ताहि ॥८०॥
(३. दुरमति=कुबुद्धि)
संतजगजीवन जी कहते हैं जैसे यह संसार व्यसन रुपी विष सेवन कर स्वयं की ही हानि अज्ञान वश करते हैं ऐसे ही कुबुद्धि रुपी विष आने से हम उन तेजोमय प्रभु को नहीं पहचानते हैं ।
(क्रमशः)

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