गुरुवार, 11 फ़रवरी 2021

*साधनाकाल में श्रीरामकृष्ण के दर्शन*

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*दादू एक सगा संसार में, जिन हम सिरजे सोइ ।*
*मनसा वाचा कर्मणा, और न दूजा कोइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पीव पहचान का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*साधनाकाल में श्रीरामकृष्ण के दर्शन*
श्रीरामकृष्ण – एक दिन दिखाया चारों और शिव और शक्ति ! शिव और शक्ति का रमण ! मनुष्यों, जीव-जन्तुओं, वृक्षों और लताओं – सभी में वही शिव और शक्ति – पुरुष और प्रकृति – सर्वत्र इन्हीं का रमण ।
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“दूसरे दिन दिखाया कि नर-मुण्डों की राशि लगी हुई है ! – पर्वताकार – और कहीं कुछ नहीं ! उनके बीच में मैं अकेला बैठा हुआ हूँ ।
“और एक बार दिखाया, महासमुद्र, मैं नमक का पुतला होकर उसकी थाह लेने जा रहा हूँ ! थाह लेते समय श्रीगुरुकृपा से पत्थर बन गया ! देखा, एक जहाज आ रहा है, बस उमड़ पड़ा ! – श्रीगुरुदेव कर्णधार थे ।”
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श्रीरामकृष्ण –(मणि के प्रति) – और अधिक विचार न करो उससे अन्त में हानि होती है । उन्हें बुलाते समय एक भाव का सहारा लेना पड़ता है – सखीभाव, दासीभाव, सन्तानभाव या वीरभाव ।
“मेरा सन्तानभाव है । इस भाव को देखने पर मायादेवी रास्ता छोड़ देती हैं – शर्म से !
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“वीरभाव बहुत कठिन है । शाक्त तथा वैष्णव बाउलों का है । उस भाव में स्थिर रहना बहुत कठिन है फिर हैं – शान्त, दास्य, सख्य और वात्सल्य तथा मधुरभाव । मधुरभाव में – शान्त, दास्य, सख्य और वात्सल्य – सब हैं । (मणि के प्रति) तुम्हें कौन भाव अच्छा लगता है ?”
मणि – सभी भाव अच्छे लगते हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - सब भाव सिद्ध स्थिति में अच्छे लगते हैं । उस स्थिति में काम की गन्ध तक नहीं रहेगी वैष्णव-शात्र में चण्डीदास तथा धोबिन की कथा है – उनके प्रेम में काम की गन्ध तक न थी ।
“इस स्थिति में प्रकृतिभाव होता है ।
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“अपने को पुरुष मानने की बुद्धि नहीं रहती । मीराबाई के स्त्री होने के कारण रूप गोस्वामीजी उनसे मिलना नहीं चाहते थे । मीराबाई ने कहला भेजा, “श्रीकृष्ण ही एकमात्र पुरुष है; वृन्दावन में सभी लोग उस पुरुष की दासियाँ हैं ।’ क्या गोस्वामीजी को पुरुषत्व का अभिमान करना उचित था ?
सायंकाल के बाद मणि फिर श्रीरामकृष्ण के चरणों के पास बैठे हैं । समाचार आया है कि श्री केशव सेन की अस्वस्थता बढ़ गयी है । उन्हीं के सम्बन्ध में वार्तालाप के सिलसिले में ब्राह्म समाज की बातें हो रही हैं ।
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श्रीरामकृष्ण – (मणि के प्रति) – हाँ, जी, उनके यहाँ क्या केवल व्याख्यान ही होते हैं, या ध्यान भी ? वे अपनी प्रार्थना को शायद कहते हैं ‘उपासना’ ।
“केशव ने पहले ईसाई धर्म, ईसाई मत का बहुत चिन्तन किया था – उस समय तथा उससे पूर्व वे देवेन्द्र ठाकुर के यहाँ थे ।”
मणि – केशव बाबू यदि पहले-पहल यहाँ आये होते, तो समाजसंस्कार पर माथापच्ची न करते । जातिभेद को उठा देना, विधवा विवाह, असवर्ण विवाह, स्त्री-शिक्षा आदि सामाजिक कामों में उतने व्यस्त न होते ।
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श्रीरामकृष्ण केशव अब काली मानते हैं – चिन्मयी काली – आद्याशक्ति । और माँ माँ कहकर उनके नामगुणों का कीर्तन करते हैं । अच्छा, क्या ब्राह्म समाज बाद में सिर्फ सामाजिक संस्कार की ही एक संस्था बन जायगा ?
मणि – इस देश की जमीन वैसी नहीं है । जो ठीक है वही यहाँ पर जड़ पा सकेगा । 
श्रीरामकृष्ण – हाँ, सनातन धर्म, ऋषिलोग जो कुछ कह गये हैं वही रह जायगा । तथापि ब्राह्म समाज और उसी प्रकार के सम्प्रदाय भी कुछ-कुछ रहेंगे । सभी ईश्वर की इच्छा से हो रहे हैं, जा रहे हैं ।
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दोपहर के बाद कलकत्ते से कुछ भक्त आये हैं । उन्होंने श्रीरामकृष्ण को अनेक गीत सुनाये थे । उनमें से एक गीत का भावार्थ यह है – ‘माँ, तुमने हमारे मुँह में लाल चुसनी देकर भुला रखा है; हम जब चुसनी फेंककर चिल्लाकर रोयेंगे तब तुम हमारे पास अवश्य ही दौड़कर आओगी ।’
श्रीरामकृष्ण – (मणि के प्रति) – उन्होंने लाल चुसनी का नया ही गाना गाया ।
मणि – जी, आपने केशव सेन से इस लाल चुसनी की बात कही थी ।
श्रीरामकृष्ण – हाँ, और चिदाकाश की बात – और भी कई बातें हुआ करती थीं – और बड़ा आनन्द होता था । गाना – नृत्य सब होता था ।
(क्रमशः)

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