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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ पारिख का अंग २७ - १४/१७)*
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*दादू पूरण ब्रह्म विचारिये, तब सकल आत्मा एक ।*
*काया के गुण देखिये, तो नाना वरण अनेक ॥१४॥*
जब सर्वत्र परिपूर्ण ब्रह्म का विचार करते हैं तो ब्रह्म से भिन्न कुछ भी दूसरा नहीं दीखता किन्तु ब्रह्म ही सब कुछ दीखता है । जैसा श्रुति में कहा है कि यह सब ब्रह्म ही है । यदि शरीरों को लेकर विचार करते हैं तो नानावर्ण आकृतिरूप नाम की प्रतीति होती है । जैसे समष्टि की दृष्टि से वन-वन ऐसा कहते हैं और व्यष्टि की दृष्टि से उसी को वृक्षखण्ड बोलते हैं ।
अथवा जैसे महान् अन्धकार में वर्तमान रज्जु अपने में आरोपित सर्पमाला दण्ड जलधारा आदि से अबाधित भ्रान्तिकाल से पहले और भ्रान्तिकाल के बाद और भ्रान्तिकाल के समय में भी एक रूप ही प्रतीत होती है और सर्पादि अध्यस्त है, वे यद्यपि तीनों कालों में मिथ्या और अविद्यमान होते हुए भी विद्यमान की तरह प्रतीत होते हैं ।
ऐसे ही आत्मा अनात्मा का विचार करने पर सर्वत्र आत्मा ही भासता है । इतना ही ज्ञानी और अज्ञानी का भेद है । ज्ञानी को सब आत्मस्वरूप ही प्रतीत होते हैं । अज्ञानी को नाना रूप प्रतीत होते हैं ।
विवेकचूडामणि में लिखा है कि- जैसे पत्थर वृक्ष तृण धान्य वस्त्र आदि के जलने पर सब मिट्टी ही हो जाते हैं वैसे ही इन्द्रिय प्राण और मन आदि संपूर्ण दृश्यपदार्थ ज्ञानाग्नि से दग्ध हो जाने पर परमात्मारूप ही हो जाते हैं ।
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*॥ नर विडम्बरूप ॥*
*मति बुद्धि विवेक विचार बिन, माणस पशु समान ।*
*समझायां समझै नहीं, दादू परम गियान ॥१५॥*
बुद्धि विवेक विचार विना यह जीव पशु तुल्य है समझाने पर भी नहीं समझता । जैसे लिखा है कि- आहार, निद्रा, भय, मैथुन यह सब पशु पक्षियों के समान ही मनुष्यों के भी हैं । मनुष्य में एक ज्ञान की विशेषता है । उसके विना मनुष्य भी पशुतुल्य हो जाता है ।
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सब जीव प्राणी भूत हैं, साधु मिलैं तब देव ।
ब्रह्म मिलै तब ब्रह्म हैं, दादू अलख अभेव ॥१६॥
सभी प्राणियों की जब नीच कर्म करने की प्रवृत्ति होती है तो वे आसुर गुणवाले होकर प्रेत की तरह हो जाते हैं । साधु की संगति से देवभाव को प्राप्त हो जाते हैं और ब्रह्मवेत्ता के संसर्ग से ब्रह्मस्वरूप हो जाते हैं ।
सर्वोपनिषत्सार संग्रह में- जैसे सुवर्ण से उत्पन्न होने वाले कुण्डल आदि सब सुवर्ण रूप ही है । ऐसे ही सब ब्रह्म से पैदा होने के कारण सब ब्रह्म रूप ही है । क्योंकि जैसे-जैसे रज्जु में सर्प कल्पित है वैसे ही यह जगद् ब्रह्म में कल्पित हैं । कल्पित की अलग सत्ता नहीं होती किन्तु अधिष्ठान रूप ही वह होता है । अतः सब ब्रह्म ही है ।
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*॥ करतूती कर्म ॥*
*दादू बँध्या जीव है, छूटा ब्रह्म समान ।*
*दादू दोनों देखिये, दूजा नांही आन ॥१७॥*
जो कर्मों के पाश से बंधा हुआ है वह जीव होता है । कर्मपाश से मुक्त होने पर जीव ब्रह्म एक ही हो जाते हैं । अतः उपाधिकृत भेद है, वास्तविक भेद नहीं हैं, दोनों एक ही हैं ।
बन्ध का स्वरूप विवेकचूडामणि में बतलाया है- संसार रूपी वृक्ष का बीज तो अज्ञान है । देहात्म बुद्धि उसका अंकुर है । राग, उसके पत्ते हैं । कर्म, जल है । शरीर, तना है । प्राण, शाखायें हैं । इन्द्रियां, उपशाखायें हैं । विषय, पुष्प हैं और नाना प्रकार के कर्मों से उत्पन्न हुआ दुःख फल है तथा जीवरुपी पक्षी इन का भोक्ता है । बस यही जीव का बन्धन है कि वह अपने को अज्ञान से भोक्ता मानने लगा । ज्ञान से भोक्तृत्वभाव के नष्ट हो जाने से वह मुक्त हो जाता है ।
(क्रमशः)

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