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*आतम जोगी धीरज कंथा,*
*निश्चल आसण आगम पंथा ॥*
*सहजैं मुद्रा अलख अधारी,*
*अनहद सींगी रहणि हमारी ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद. २३०)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*२. स्वामी कार्तिकेय*
*मूल इन्दव-*
*जाजलिमान१ महा शिव को सुत,*
*देखु मतो कन्नश्याम जती को ।*
*नारि जिती जननी कर देखत,*
*रूप सबै पिण्ड पारवती को ॥*
*शील गह्यो मनसा मन जीत रु,*
*भोग न भावत योग सु नीको ।*
*राघो लगी ध्वनि ध्यान टरै नहिं,*
*जाप जपै हरि प्राणपती को ॥७७॥*
देव सेनापति महान् तेजस्वी१ कुमार कार्तिकेय भगवान् शंकरजी के पुत्र हैं । कृत्तिकाओं ने इन्हें स्तन्य पान कराया था, इसी से इनका कार्तिकेय नाम प्रसिद्ध हुआ है ।
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स्वामी-कार्तिकेय का सिद्धांत तो देखिये-आप जितनी भी नारी हैं उनको माता के समान देखते हैं और कहते हैं-ये सभी शरीर पार्वतीजी के रूप हैं ।
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आपने मनोरथ और मन को जीतकर ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया है । आपको सांसारिक भोग प्रिय नहीं लगते । योग ही अति अच्छा लगता है ।
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आपकी वृत्ति अनाहत् नाद रूप ध्वनि पर ही लगी रहती है । आपका मन प्रभु के ध्यान से नहीं हटता है । प्राणपति परमात्मा हरि का नाम आप सदा मुख से जपते रहते हैं ।
(क्रमशः)

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