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*निरंजन की बात कहै, आवै अंजन माँहि ।*
*दादू मन मानै नहीं, स्वर्ग रसातल जांहि ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*वेद विकार का अंग १३८*
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विष अमृत सब वेद मध्य, निर्णय करैं सु नाँहिं ।
जन रज्जब जग जुगल१ रस, पी प्राणी मरि जाँहिं ॥५॥
वेद में बारम्बार जन्म मृत्यु देने वाला कर्म कांड रूप विष और मुक्ति देने वाला ज्ञानामृत आदि सभी कुछ है किंतु जगत के प्राणी उसका निर्णय करके उपयोग में नहीं लेते अर्थात सकाम कर्म बंधन का हेतु है और अपरोक्ष ज्ञान मुक्ति का हेतु है, यह निश्चय करके कर्त्तापन रहित कर्म करते हुये अपरोक्ष ज्ञान द्वारा ब्रह्मचिंतन नहीं करते हैं और उक्त विष अमृत दोनों१ रसों को मिलाकर पान करते हैं, इसलिये बारम्बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं ।
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रज्जब वेद हु सौं रह्या, पर्या भेद में जाय ।
दूरि न दौरैं दह१ दिशा, निकट लिया निरताय ॥६॥
जो वेदों से कथित कर्मकाण्ड में ही रह जाता है, वह भेद मार्ग में ही पड़ा रह जाता है, किंतु वेद के ज्ञान कांड और संतों ने कहा है- ब्रह्म साक्षात्कार के लिये दशों१ दिशाओं में दूर नहीं दौड़ो, जिनने भी ब्रह्म का साक्षात्कार किया है, उन्होंने विचार के द्वारा अति निकट हृदय स्थान में ही किया है ।
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वेद बतावै सबनि को, क्रीड़ा गोपी कान्ह१ ।
रज्जब नर नार्यों रचे२ गति३, मति४ गही सु नान्ह५ ॥७॥
वेदादि का आश्रय लेकर सभी को गोपी-कृष्ण१ की लीला बताते हैं, उससे नर, नारियों में अनुरक्त२ होते हैं और उनकी बुद्धि४ तुच्छ५ चेष्टा३ को ग्रहण करती है ।
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भागवत कहै भारत की, लड़ मूये दाना देव ।
रज्जब रुचि उपजै नहीं, काजी कीजे सेव ॥८॥
भागवत की युद्धों की कथायें कहती हैं, जिसमें दानव और देवता लड़लड़ कर मरते रहे हैं, उन युद्धों की कथाओं से भगवान में प्रीति उत्पन्न होती नहीं तब किसकी उपासना करैं ?
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित वेद विकार का अंग १३८ समाप्तः ॥सा. ४३८०॥
(क्रमशः)

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