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*दादू जब लग जीविये, सुमिरण संगति साध ।*
*दादू साधू राम बिन, दूजा सब अपराध ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*सर्वस्व दाता भक्त*
*जन राघव राम अरीझ हैं,*
*परि रीझत है सर्वस्व दिये ॥*
*उच्छवृत्ति जु शिवि रु,*
*सुदर्शन हरिचंद सत गहि ।*
*सारसेठ बलत्री,*
*ईषन जित रंतिदेव लहि ॥*
*कर्ण बलि मोह-मरद,*
*मोरध्वज एदवेद बन ।*
*पर्वत कुंडलधृत,*
*बारमुखी च्यार मुक्त भन ॥*
*व्याध कपोत कपोती कपिला,*
*जलतटांग उपकार जल ।*
*तुलाधार इक सुता साह की,*
*भोज विक्रमाजीत वीरबल ॥*
*ये बड़सती सताई सौं,*
*जप उधरे उत्तम कृत किये ।*
*जन राघव राम अरीझ है,*
*परि रीझत है सर्वस्व दिये ॥९१॥*
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*१५.जीवन्ती वेश्या-* तोता को हरिनाम पढ़ाते पढ़ाते प्रभु को अपना सर्वस्व देकर प्रभु को ही प्राप्त हुई थी ।
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*१६.श्री रंगजी के शिर पर मुकुट* चढाने वाली वेश्या । इसकी कथा छप्पय ८७ की टीका में देखो ।
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*१७.अजामिल की सहचरी वेश्या* यह भी अजामिल के संग से भक्त हो गई थी । ये चारों वेश्या प्रभु भक्ति करके मुक्त हो गई थी, ऐसा ही कहा जाता है ।
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१८.व्याध, १९.कपोत, २०.कपोती-* व्याध को इसके क्रूर कर्मों के कारण सगे सम्बन्धियों ने भी त्याग दिया था । एक दिन वह वन में आंधी-वर्षा के कारण दुःखी था । उसी समय सर्दी से व्याकुल होकर पृथ्वी पर पड़ी कपोती को उठाकर उसने पींजरे में डाल लिया और एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगा । उस वृक्ष पर रहने वाला कबूतर अपनी कबूतरी के लिये विलाप करने लगा । पींजरे में पड़ी कबूतरी शरणागत व्याध की सेवा की प्रार्थना की । तब कबूतर कहीं जलती हुई एक लकड़ी लाया और सूखी लकड़ियों में डालकर अग्नि प्रज्वलित की ।
अग्निराशि हो जाने पर व्याध की भूख मिटाने के लिये अग्निराशि में प्रवेश कर गया । इससे व्याध को भी वैराग्य हो गया । उसने कबूतरी को छोड़ दिया । वह भी अग्नि में प्रवेश कर गई । इस प्रकार परमार्थ के लिये अपना सर्वस्व देने से उन्हें स्वर्ग लोक की प्राप्ति हुई । व्याध भी तपस्या करते हुये दावानल में प्रवेश करके स्वर्ग लोक में चला गया । तीनों ही सर्वस्व देकर प्रभु को प्राप्त हए ।
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*२१.कपिला-*पृथ्वी पर एक प्रभंजन नामक महाबली प्रसिद्ध राजा हुये हैं, वे एक दिन वन में शिकार खेल रहे थे । अपने बच्चे को दूध पिलाती हुई मृगी के उन्होंने बाण मारा । मृगी ने यह कहकर कि इस अवस्था में तुमने मेरे बाण मारा है अतः तुम इस वन में कच्चा मांस खाने वाले व्याघ्र बन जाओ, यह शाप दे दिया । राजा ने शाप मुक्ति का उपाय पूछा । मृगी ने कहा-१०० वर्ष बाद नंदा नामक गो से यहीं तुम्हारा वार्तालाप होगा तब तुम शाप से मुक्त हो जाओगे ।
१०० वर्ष के बाद वहां एक दिन नन्दा गो आ गई । व्याघ्र ने उसे देखा और खाने को दौड़ा । नन्दा अपने बछड़े को याद करके व्याकुल हो गई । व्याघ्र ने कहा-मेरे सामने आ गई हो मैं खाऊंगा ही, फिर क्यों रोती हो? नन्दा बोली-मेरे बछड़े को याद करके रो रही है । तुम मुझे बछड़े को दूध पिला आने दो, फिर खा लेना । नन्दा ने अनेक शपथें सत्य की खाकर कहा-मैं अवश्य आ जाऊंगी । व्याघ्र ने उसे जाने दिया । वह बछड़े के पास गयी । सब बात सुनाई । बछड़ा बोला-मैं भी साथ चलूंगा । नन्दा लौटने लगी, साथ की गोओं ने उसे रोका ।
पर वह सत्य पालन के लिये चल दी । तब बछड़ा उससे भी आगे भागा और मांस तथा व्याघ्र के बीच में खड़ा हो गया । नन्दा ने व्याघ्र को कहा-अब तुम मेरा मांस खाकर तृप्ति प्राप्त करो । व्याघ्र बोला-तुम्हारे सत्य धर्म की परीक्षा के लिये ही मैंने तुम को छोड़ा था । तुमने उसका पालन किया है । अब तुम मेरी बहिन हो, बछड़ा भानजा है । सत्य पर सब लोक प्रतिष्ठित है । अब तुम मुझे उपदेश करो जिससे मेरा कल्याण हो । नन्दा बोली-अभयदान अति श्रेष्ठ तप है । इसे अपना कर तुम मुक्त हो जाओगे ।
यह उपदेश सुनकर व्याघ्र को अपने पूर्व जन्म की स्मृति आ गई । उसने गो का नाम पूछा । गो ने बताया मेरा नाम नन्दा है । नन्दा नाम सुनते ही प्रभंजन शाप से मुक्त हो गये और पूर्ववत् राजा बन गये । उसी समय वहां धर्मराज ने प्रकट होकर नन्दा से वर माँगने को कहा । नन्दा बोली-आपकी कृपा से मैं पुत्र सहित उत्तम पद को प्राप्त होऊं और यह स्थान मुनियों को धर्म प्रदान करने वाला हो । धर्मराज ने तथास्तु कह कर वर दिया । नन्दा उत्तम लोक को गई । राजा अपने राज्य को प्राप्त हो गया । यह सब सरस्वती के तट पर हुआ था । तब से सरस्वती का नाम वहां नन्दा सरस्वती पड़ गया । यह स्थान पुष्कर से लगभग तीन-चार कोस नान्द ग्राम के पास है । यह कथा पद्म पुराण के सृष्टि खंड में विस्तार से है ।
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*२२.जलतटांग-*पक्षी अपने चूंच में चौदह चड़स जल जलाशय से लाकर निर्जल स्थान के प्राणियों को प्रदान करता है । वह अपनी चूंच खोल कर बैठ जाता है । चूंच खेली के समान बन जाती है । सभी प्राणी उसमें से जल पान करते हैं । इस प्रकार अपने जीवन रूप सर्वस्व को प्रभु के समर्पण करता है अर्थात् जीवन भर जल प्रदान रूप उपकार करता ही रहता है ।
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*२३.तुलाधार-* काशी में रहते थे । इनके समान उस समय कोई भी नहीं था । उन्हीं दिनों में जाजलि नामक ब्राह्मण समुद्र के तट पर तपस्या कर रहे थे । एक दिन ध्यान में उन्हें सम्पूर्ण सृष्टि विषयक ज्ञान करामलकवत प्रत्यक्ष रूप में हुआ । तब उन्हें अभिमान हो गया कि- मेरे समान कोई भी नहीं है । आकाशवाणी ने कहा-ऐसा अभिमान तो काशी के तुलाधार वैश्य भी नहीं करते । उनके समान तो आप को ज्ञान है भी नहीं ।
यह सुनकर जाजलि तुलाधार के पास गये । तुलाधार ने उनका स्वागत किया और कहा-आप घोर तपस्या करते थे । आप को सूखा वृक्ष समझकर पक्षियों ने आपकी जटा में घोंसले बना लिये थे । जब आपको तपस्या का अभिमान हुआ तब आकाश वाणी सुनकर आप यहां पधारे हैं । जाजलि ने पूछा आपको ऐसा ज्ञान कैसे हुआ ।
तुलाधार ने कहा-सदाचार और भगवद् भक्ति से । जाजलि ने भी तुलाधार के कथनानुसार करके सद्गति प्राप्त की । तुलाधार ने अपना सर्वस्व प्रभु को समर्पण किया था । दूसरे तुलाधार व्याध माता-पिता को ही भगवत् स्वरूप जानकर सेवा करते थे । अपना सर्वस्व सेवा द्वारा प्रभु के समर्पण किया था । एक कृतबोध नामक सज्जन ने बड़ी तपस्या की थी । उपनिषदों का ज्ञान भी प्राप्त किया था ।
जब वे तुलाधार व्याध सामने आये तब तुलाधार ने उनकी तपस्या का और सिद्धि का ठीक ठीक वर्णन कर दिया था । इससे प्रभावित होकर कृतबोध ने भी इन्हीं के समान माता-पिता की सेवा का व्रत लिया था । तीसरे निर्लोभी तुलाधार शुद्र इनने भी अपना सर्वस्व प्रभु के समर्पण किया था । ये परमभक्त थे । वस्त्र के अभाव में इनके स्नान करने के स्थान पर नदी के तट पर भगवान् ने वस्त्र रखे थे । इन्होंने नहीं लिये ।
दूसरे दिन सोना रखा नहीं लिया । फिर ज्योतिषि के रूप में भगवान् उसके ग्राम में प्रकट होकर धनादि बताने लगे । तुलाधार की पत्नी भी उनके पास गई । उसे उनने कहा-तेरा पति प्राप्त हुये धन को भी नहीं लाता फिर तुम्हारा दरिद्र कैसे जाय । पत्नी ने स्वामी को कहा, तुलाधार ज्योतिषि रूप भगवान् के पास गया । ज्योतिषि ने कहा- तुम तो आँखों के सामने पड़े हुये धन को भी तृण के समान छोड़कर चले आये ।
तुलाधार ने कहा- मुझे धन नहीं चाहिये । ज्योतिषि ने नाना प्रकार से धन की महत्ता बताई किन्तु तुलाधार को किंचित भी लोभ नहीं हुआ । तब आकाश से देवताओं ने तुलाधार पर पुष्प बर्षाये । भगवान् ने भी दर्शन दिया और अपने साथ दिव्य लोक को ले गये । कारण तुलाधार ने अपना सर्वस्व प्रभु के समर्पण किया था ।
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*२४.एक साह पुत्री वल्लभ बाई* की कथा मूल छप्पय ३४०-३४३ तक आगे आयेगी । एक साह पुत्री और भी हुई है । उसने अपने कृपण श्वशुर को पहले भुंजे हुये चणा देना सिखाया था, फिर चने की रोटी खिलाकर सचेत किया था तब उसने सदाव्रत लगाया था और सदाव्रत देते समय प्रभु ने याचक के रूप में आकर मांगा फिर अपने वास्तविक रूप का दर्शन कराकर कृतार्थ किया था कहा भी है-
‘चारद्वार पर देत हो, करके नीचे नैन ।
कहो कहां से सीखिया, ऐसी विधि का देन ॥
यह वचन प्रभु ने कहा तब सेठ ने उत्तर दिया- साहिब सबको देत है, देता है दिन रैन । नाम हमारा लेत हैं, तातैं नीचे नैन ॥ यह सुनकर प्रभु के अपने चतुर्भुज रूप का दर्शन कराया था । इस साह पुत्री ने भी अपना सर्वस्व प्रभु के ही समर्पण किया था ।
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*२५.भोज* परमार वंशीय विद्वान् संस्कृत के कवि मालवा प्रदेश उज्जैन के राजा थे । अति उदार और विद्या प्रेमी थे । आपकी सभा में विद्वानों का अति आदर होता था । एक पद्य की रचना पर भी आप लाख रूपये पुरस्कार दे देते थे । आपने अपने नगर उज्जैन में निरक्षर किसी को भी नहीं रहने दिया था । आप अच्छे नीतिज्ञ और प्रजावत्सल थे । सिंहासन बत्तीसी और भोज प्रबन्ध आदि ग्रन्थों में भी आपके सम्बन्ध की विचित्र बातें मिलती हैं ।
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*२६.विक्रमादित्य-* वर्तमान विक्रमीय संवत के प्रवर्तक उज्जैन के एक प्रतापी राजा हुए हैं । भर्तृहरि के छोटे भाई थे । जब भर्तृहरि राज्य से विरक्त होकर चले गये तब आप ही उज्जैन के राजा बने थे । आपने अच्छा शासन किया था । आपका परोपकार तो बहुत ही बढा चढा था इसी से आपका नाम दुःख-भंजन-हार पड़ गया था । आपने अनेकों के दुःख हरे थे । आपके विषय की विचित्र कथायें-सिंहासन बत्तीसी और वैताल पच्चीसी में मिलती हैं । जिनको अधिक जानने की इच्छा हो तो वे उक्त ग्रन्थों में तथा अन्य ग्रन्थों में देखने का परिश्रम करें ।
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*२७.वीरबल ब्रह्मभाट* थे । साधारण घर के थे किन्तु इनकी बुद्धि अति विचित्र थी । इसी कारण अकबर बादशाह ने इनको अपना मंत्री बना लिया था । ये बड़े ही दयालु, परोपकारी और धैर्यवान् थे । अकबर बादशाह इनसे प्रसन्न रहते थे । ये जो भी अपने मुख से कह देते थे, वह सत्य ही हो जाता था । संत प्रवर दादूजी पर आपकी अति-श्रद्धा थी ।
‘वीरबल विनोद’ नामक पुस्तक में आपकी विचित्र बुद्धि का परिचय मिलता है । इनका चमत्कारपूर्ण वचन व्यवहार देखना हो तो वीरबल विनोद देखिये । ये सत को धारण करने वाले २७ महान् सती उत्तम कार्य तथा नाम जाप करते हुए अपना सर्वस्व भगवान् के समर्पण करके भगवान् को प्राप्त हुए हैं ।
(क्रमशः)
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