बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

= *नितिज्ञ का अंग १३९(२१/२४)* =

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*जब परम पदार्थ पाइये, तब कंकर दिया डार ।*
*दादू साचा सो मिले, तब कूड़ा काज निवार ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*नितिज्ञ का अंग १३९*
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बंदर हूं बाहर१ चढे२, रज्जब नीति विचार ।
अनुज३ हु तज्या अनीति में, रावण सा शिर मार ॥२१॥
रामचन्द्र की नीति का विचार करके बानरों ने राम की सहायतार्थ१ रावण पर हमला२ किया था और अनीति में स्थित रावण जैसे भाई को भी उसके छोटे३ भाई विभीषण ने त्याग दिया था, अत: अनीति में स्थित को तो शिर मारना अर्थात त्याग ही देना चाहिये ।
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सरिता मिलहिं समुद्र को, चोट चिन्ह कछु नाँहिं ।
रज्जब सूझ१हि बूंद निधि२, उदय३ बुद बुदा मांहिं ॥२२॥
नदी समुद्र में मिलती है तब समुद्र में नदी के आधात का चिन्ह कुछ भी नहीं दीखता किंतु देखने१ में आता है बिंदु समुद्र२ से मिलती है तब समुद्र में बुदबुदे उठते३ हैं, यह लधु का आदर करना समुद्र की नीतिज्ञता है ।
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शत१ पथरी२ शस्त्रों सहे, करीन तोवह३ त्राहि४ ।
कुसुम चोट कसके५ तेउ, आनन उचरी६ आहि ॥२३॥
मनसूर में अनीतिज्ञों के सैकड़ों१ पत्थर२ और शस्त्रों के आधात सहे थे किंतु पुन: अनलहक न कहने की प्रतिज्ञा३ न करी और मेरी रक्षा४ करो यह भी नहीं कहा, वे भी नीतिज्ञा अपनी बहन के पुष्प की चोट की हलकी सी पीड़ा५ से मुख६ से आहि बोल उठे थे, कारण - नीतिज्ञ का अनाचार सहन नहीं होता । मनसूर को 'अनलहक' बोलने पर मुसलमान शासकों ने दंड दिया था, यह कथा प्रसिद्ध है ।
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अव्याप्यों१ को व्याप२ ही, करतों देखि अनीति ।
रज्जब सांई साधु घर, आदि अदलि३ रस४ रीति ॥२४॥
अनीति करते देखकर जिनको दुख नहीं हो१, उनको भी होने२ लगता है । प्रभु के और संतों के घर में आदि काल से ही न्याय३ से प्रेम४ करने की रीति रही है ।
(क्रमशः)

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