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*परिचै सेवा आरती, परिचै भोग लगाइ ।*
*दादू उस प्रसाद की, महिमा कही न जाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*जूठणि का अंग १३६*
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इस अंग में यह सभी कुछ जूठे हैं यह कह रहे हैं ~
रज्जब रिधि१ जूठी सभी, सब जग देख्या जोय२ ।
इल३ न अभोगति पाइये, कहु सेवा क्यों होय ॥१॥
दृष्टि२ फैला कर सब जगत को देखा है, तब ज्ञात हुआ है सभी माया१ जूठी है, पृथ्वी३ बिना भोगी हुई नहीं मिलती तब कहो, बिना शुद्ध वस्तु के प्रभु की सेवा कैसे हो ?
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जीव जुठाली१ लक्ष्मी, लच्छी औंट्या२ जीव ।
इहां अभोगति कुछ नहीं, कहा समरपै पीव३ ॥२॥
जीव ने लक्ष्मी को भोग कर जूंठी१ कर दिया है और लक्ष्मी ने जीव को भोग कर जूठा२ कर दिया है । यहां बिना भोगा हुआ कोई भी पदार्थ नहीं है, तब प्रभु३ को क्या समर्पण करें ?
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित जूठणि का अंग १३६ समाप्तः ॥सा. ४३५३॥
(क्रमशः)

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