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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१३. मन कौ अंग ~ २५/२८*
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जगजीवन मन मंदिरै, हरि भजि चढिये प्रांन ।
सकल लोक तहां देखिये, उत्तम आठों ठांम ॥२५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं की प्राणों के माध्यम से या सीढी से हर श्वास में स्मरण कर हम प्रभु तक पहुंच पाते हैं । फिर आठो प्रहर उस उत्तम धाम में बैठ कर हम सकल सृष्टि को देख पाते हैं अनुभव कर पाते हैं ।
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जगजीवन ज्यूं कीजिये, त्यूं ही देही होइ ।
मन जागै चेतन रहै, (तो) दुक्ख न व्यापै कोइ ॥२६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जैसे काया की आदत डालेंगे वह वैसी ही होगी । अगर यह मन सदा सचेत रहे प्रभु गामी बना रहे तो दुख हो ही नहीं ।
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जगजीवन ज्यों कीजिये, त्यूं ही यहु मन होइ ।
रांम नांम रस पीवतां, दुक्ख न व्यापै कोइ ॥२७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जैसा करेंगे यह मन वैसा ही हो जायेगा । राम नाम का स्मरण करने से कभी कोइ दुख नहीं होता है ।
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जगजीवन तन मन बिलै४, किस विधि कीजै रांम ।
चित चंचल चहुँ दिस भ्रमै, रहै न एकै ठांम ॥२८॥
(४. बिलै=दोनों का एक में मिलन)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि तन मन को राम में लीन किस विधि से करें यह चंचल हो चह़ुँ दिशि भागता है एक प्रभु शरण में नहीं रहता है ।
(क्रमशः)

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