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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१२. चितावणी कौ अंग ~ ८१/८४*
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गज केहरि झांई द्रसी४, हत्यौ प्रांण अभिमान ।
जगजीवन ते ऊबरे, जे रांचे गुरु ग्यांन ॥८१॥
(४. गज केहरि झांई द्रसी=हाथी एवं सिंह ने अपना प्रतिबिम्ब देखकर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव हाथी जैसै अभिमान वश जल में अपनी छाया देखकर कि मेरे जैसा कोइ हो ही नहीं सकता कूद कर प्राण त्याग देता है । इस संसार में वे ही जन पार होते हैं जो गुरु महाराज के ज्ञान में रमें हैं ।
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इक पंडित इक हरि भगत, द्वै जन ठाड़े तीर ।
मिरतक५ इक आवत बह्यो, सन्मुख सलिता नीर ॥८२॥
{५. मिरतक=मृतक(शव)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि पांडित्य का दंभ व भक्ति धारण किये दो जन इस संसार रूपी नदी तट पर खडे हैं नदी में बहते शव को देख दोनों एक पांडित्य लक्षण से व दूसरा भक्ति से हरि इच्छा कहता है ।
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सबद सियाल तहां करै, जंघ नंग तिहि चारि ।
कोइ ले भष दे आंनि मंहि, समझै सबद विचारि ॥८३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं यह संसार एक को देखकर वैसा ही आचरण उन सियारों की भांति करता है जैसे वे बिना विचारे़ एक को देखकर सभी जोर से चिल्लाने लगते हैं ।
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साध सुरति गहि अगम की, हरि मंहि रह्यौ समाइ ।
पंडित प्रवरति६ आस धरि, जल मंहि पैठौ धाइ ॥८४॥
६. प्रवरति=प्रवृत्ति(=प्रयत्न, चेष्टा) ।
संतजगजीवन जी कहते है कि साधु जन प्रभु की बात करते है वे उसी में समाये रहते है क्योंकि उन्हें किसी की चाह नहीं होती और चाह की लिप्सा में पंडित अपने ज्ञान व चमत्कार को दिखाने जल में बैठे रहते हैं।
(क्रमशः)

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