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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ सजीवन का अंग २६ - ३०/३२)*
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*दिन दिन लहुड़े होंहि सब, कहैं मोटा होता जाइ ।*
*दादू दिन दिन ते बढ़ैं, जे रहैं राम ल्यौ लाइ ॥३०॥*
आयु के प्रतिदिन क्षीण होने के कारण प्राणी छोटा हो रहा है । फिर भी अज्ञानी शरीर की वृद्धि से अपने को बढ़ता हुआ जानकर कहता है कि देखो मैं कितना बडा हो गया हूं । किन्तु आयु तो बडी छोटी होती जा रही है । जो भक्त अपने मन की वृत्ति को परमार्थ मार्ग में चलते हुए प्रभु में दृढ़ करते हैं, उनका ही बढना सार्थक हैं । अतः अपने मन को परमात्मा में दृढ़ करो ।
लिखा है कि- मेरी बात को कान लगाकर सुनो-प्रतिदिन भगवान् के नामों का गायन करो, क्योंकि इस श्वास का विश्वास नहीं है कि यह कब अवरुद्ध हो जाय । अतः बालकपन से ही हरि नाम का गायन करते रहो ।
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*दादू जीवित छूटै देह गुण, जीवित मुक्ता होइ ।*
*जीवित काटै कर्म सब, मुक्ति कहावै सोइ ॥३१॥*
जो साधक जीते हुए देह तथा गुण धर्मों से और कर्म से मुक्त हो गया है वह जीवन्मुक्त कहलाता है । श्री दत्तात्रेय मुनि ने जीवन्मुक्त लक्षणों को बतलाते हुए कह रहे हैं कि- जो लोभ मोह तथा आशापाश से रहित है तथा सुख दुःखातीत है, वह जीवन्मुक्त है । तथा कर्मों से शारीरिक क्रिया से रहित होता हुआ अपने को नित्यमुक्त चैतन्य स्वरूप मानता है, वह जीता हुआ ही मुक्त है ।
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*दादू जीवित ही दुस्तर तिरे, जीवित लंघे पार ।*
*जीवित पाया जगद्गुरु, दादू ज्ञान विचार ॥३२॥*
जो महात्मा दुर्लंघ्य काम क्रोध आदि नदी को पार कर गये और ब्रह्म विचार के द्वारा जगद्गुरु परमात्मा को प्राप्त कर लिया वे ही जीवन्मुक्त कहलाते हैं । उनका अनुभव है कि मेरे में सारा विश्व स्थित है । वास्तविक दृष्टि से जगत् की कोई सत्ता न होने से मेरे में कुछ भी स्थित नहीं है । मेरी सारी भ्रान्ति निवृत्त हो गयी है । न मेरा बंध है, न मोक्ष है ।
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*जीवित जगपति को मिलै, जीवित आत्मराम ।*
*जीवित दर्शन देखिये, दादू मन विश्राम ॥३२॥*
साधक को जीते हुए ही जीव ब्रह्म की एकता का अनुभव होता है । जो साधक जीते हुए ही अपनी आत्मा में रमण करता हुआ सब जगह पर ब्रह्म को ही देखता है, उस साधक का मन भी शान्त हो जाता है । लिखा है कि-
मुझ आनन्द के समुद्र में जब चित्तरूपी वायु शान्त हो जाती है तो नश्वर जगत् का श्रोत जो चल रहा है वह भी उस साधक का नष्ट हो जाता है ।
(क्रमशः)

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