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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१३. मन कौ अंग ~ ५/८*
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जगजीवन मन जोर बर, मैंगल४ की गति मांहि ।
मान परहा करि मसि ह्वै, अंग मंहि भेदै नांहि ॥५॥
(४. मैंगल=मदान्ध हाथी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यह मन बड़ा बलवान है बिल्कुल मदांध हस्ती की भांति इसके उपर अभिमान की काली स्याही की परत चढ गयी है जो अतंर तक ज्ञान प्रकाश नहीं पहुँचने देती ।
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षिन५ मन नागा षिन मसी, षिन मन ससिहर सूर ।
कहि जगजीवन ग्यांन गुन, प्रेम भगति तहां नूर ॥६॥
(५. षिन=क्षण)
संतजगजीवन जी कहते है यह मन क्षण में तो सिद्ध नागा होता है क्षण में ही यह स्याह होता है । क्षण में यह चांद सूरज होता है । किंतु तेज तो वहीं होता है जहाँ ज्ञान व सद्गुण होते हैं ।
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जगजीवन मन मांहि मन, राखि न जांणै कोइ ।
जा थैं जामन६ मरण का, फिरि फिरि फेरा६ होइ ॥७॥
(६-६. जामन-मरण का फेरा=पुनर्जन्म की आवृत्ति)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन में ही मन की बात कोइ नहीं रख जानता और इसी कारण पुनः पुनः जन्म मरण के चक्कर से मुक्त नहीं होते हैं ।
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मन मंहि मन नां रह्या, रह्या सबद मंहि झूल ।
कहि जगजीवन महा गुन, फल की तन मंहि फूल ॥८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन दृढ नहीं रहता वह शाब्दिक भ्रम में पड़ता है । सबसे बड़ा गुण है कि फल फलित होता है पर फूल से फलित फल अपने फूल से ही फलता है ।
(क्रमशः)

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