रविवार, 7 फ़रवरी 2021

*४. लक्ष्मण*

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*दादू जब लग राम है, तब लग सेवक होइ ।*
*अखंडित सेवा एक रस, दादू सेवक सोइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*४. लक्ष्मण*
*मनहर-*
*द्वादश अबद१ राख्यो शबद पिता को पण२,*
*लक्ष सम लक्ष्मण दास रामचन्द्र को ।*
*फल जेते फूल पात राखे हैं हजूर तात,*
*आप ना भक्षण कीन्हो आप सेती३ अंद्र४ को ॥*
*रावण पलट भेष सिया हर ले गयो सु,*
*विपिन में निपुन निवारयो दुःख बन्धु को ।*
*राघो कहै पदम अठारै कपि रहे जपि,*
*तहां लक्षमन शिर छेद्यो दशकन्धी५ की ॥७९॥*
दशरथ पुत्र लक्ष्मणजी ने बारह वर्ष१ तक वन में महान् व्रत(खाना, सोना आदि का त्याग) रखा था और पिता का कैकई को वर देना रूप प्रतिज्ञा२ के शब्द का भी पालन किया था । रामचन्द्रजी के भक्त लक्ष्मणजी लक्ष योद्धाओं के समान थे ।
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जितने भी खाने योग्य फल, फूल, पत्ते लाते थे, वे सब बड़े भ्राता रामचन्द्रजी के पास रख देते थे । आप नहीं खाते थे । आप तो भीतर४ के साधन रूप आहार से३ ही सबल रहते थे ।
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जब रावण भेष बदलकर सीता को हर ले गया था तब वन में बड़ी चतुरता के साथ अपने बड़े भाई राम का सीता वियोग जन्य दुःख दूर करते रहते थे ।
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अठारह पद्य संख्या वाले कपि योद्धा मेघनाद को मारो मारो जपते जपते थक गये थे किन्तु मार न सके थे । वहां लक्ष्मणजी ने ही मेघनाद५ का शिर काटा था ।
(क्रमशः)

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