रविवार, 21 फ़रवरी 2021

= *नितिज्ञ का अंग १३९(३३/३६)* =

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*सो उपज किस काम की, जे जण जण करै कलेश ।*
*साखी सुन समझै साधु की, ज्यों रसना रस शेष ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*नितिज्ञ का अंग १३९*
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देशराज१ राजा कर हिं, दिल हु राज गुरु पीर२ ।
रज्जब साझा शक्ति३ में, परि मतै४ न मैला वीर५ ॥३३॥
हे भाई५ ! देश का शासन१ राजा लोग करते हैं और मन का शासन सिद्ध२ गुरु करते हैं, जैसे राजा का देश की धन२ राशि में तो साझा है किंतु जनता के विचारों४ से मेल नहीं होता, प्रत्येक व्यक्ति के विचारों में भिन्नता रहती है । वैसे ही शिष्यों की अन्य शक्तियों में तो गुरु साझा है किंतु रुचि विचित्रता के कारण विचारों४ में सर्वथा मेल नहीं होता ।
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गुरु अनन्त ज्ञान हु घणे१, बहु गोविन्द घण सेव२ ।
रज्जब मांड३ न एक मत, घर घर देई४ देव ॥३४॥
गुरु भी अनन्त हैं, उसके ज्ञान भी बहुत१ प्रकार के हैं । रुचि विचित्रता के कारण गोविन्द के रूप भी बहुत हैं, भक्ति२ भी बहुत प्रकार की है, इस ब्रह्माण्ड३ में एक मत नहीं है, प्रत्येक घर में भिन्न भिन्न देवी४ देवता मिलते हैं इस भेद से नीतिज्ञ ही निकलता है ।
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साधु सुलक्षण१ सेइये, लछि२ लालच नर पत्ति३ ।
सो धन धाम हु ना मिले, तो भाजैं४ भल भृत्ति५ ॥३५॥
लक्ष्मी२ के लोभ से राजा३ की सेवा की जाती है, वैसे ही ज्ञान१ के लिये साधु की सेवा की जाती है । राजा के घर धन न मिले तब नीतिज्ञ सेवक५ वहां से भाग४ जाता है, वैसे ही साधु के पास ज्ञान नहीं मिले तो नीतिज्ञ जिज्ञासु उसे छोड़ देता हैं ।
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रज्जब रमता राम का, बहुत भांति मंडाण१ ।
मिल हि न आदम२ एक मत, जीव जीव जुवा३ जाण ॥३६॥
सब में रमने वाले राम का ठाट१ बाट बहुत प्रकार का है, सब मनुष्यों२ का एक मत नहीं मिलता, जीव जीव के विचार भिन्न३ भिन्न ही जानने में आते हैं ।
(क्रमशः)

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