गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021

= *आचार उथेल का अंग १३७(९/१२)* =

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*प्राणी तन मन मिल रह्या, इंद्री सकल विकार ।*
*दादू ब्रह्मा शूद्र धर, कहाँ रहै आचार ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*आचार उथेल का अंग १३७*
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अजरी१ बजरी२ परसि करि, पाक पूर३ पर जाय ।
कहो आचार कहाँ रह्या, जे पंडित सो खाय ॥९॥
मक्खी१ मल२ को स्पर्श करके पकवान से पूर्ण३ बर्तन पर आ बैठती है, तब कहो आचार कहाँ रह जाता है । जो पंडित है वे भी उसे खाते हैं ।
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जीवित गाडै जोगी यहिं१, त्यों पूजा षट् कर्म ।
रज्जब आये पाप शिर, धोखे२ कहिये धर्म ॥१०॥
जैसे जीवित नाथ योगी को१ गाडते हैं और पूजते हैं, वैसे ही उक्त छ: कर्मों का सत्कार है, इससे शिर पर पाप ही आते हैं, इनको धर्म तो भूल२ से ही कहते हैं ।
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रज्जब उपजै पाप पुण्य, एक पुण्य ह्वै पाप ।
अश्वमेध यज्ञ करत ज्यों, हय१ होमे रे बाप ॥११॥
पाप से भी पुण्य उत्पन्न होते हैं, जैसे आततायी के वध से पुण्य होता है और एक पुण्य से ही पाप होता है जैसे- अश्वमेध यज्ञ करते समय बाप रे बाप निर्दयतापूर्वक घोड़े१ को भी होम देते हैं ।
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अरिल -
कहैं गृही का धर्म पाप का मूल है ।
मरे उभय पचिप्राण कहो क्या शूल१ है ॥
मारै पंच पुनीत धर्म की ठौर२ रे ।
परिहाँ रज्जब पाप रु पुण्य ज्ञान करि व्यौर३ रे ॥१२॥
जिस आचार को गृहस्थ का धर्म कहते हैं, वह पाप का मूल है, उसके लिये नर नारी दोनों ही प्राणी पच पच कर मर जाते हैं, कहो तो सही यह क्या पीड़ा१ अपनाई है ? पंच ज्ञानेन्द्रियों को मारना यह पवित्र धर्म का स्वरूप२ है, इसमें पाप नहीं होता, अत: पाप और पुण्य का विवरण३ ज्ञान के द्वारा भली प्रकार समझ लेना चाहिये ।
(क्रमशः)

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