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स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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(“अष्टमोल्लास” १९/२१)
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*निर्वरत(निर्वत) होई रू कीजे काजू,*
*अथवा वन अथवा करौ राजू ।*
*उभै बात दई समझाई,*
*ज्यूं भावै त्यूं कीजै राई ॥१९॥*
विरक्त अनासक्त होकर कार्य करो फिर चाहे बन में रहो चाहे राज्य करो । मैने तुमको दोनों बाते समझा दी है अत: राजन ! अब तुमको जो अच्छा लगे वही स्थान बन या घर अपना लीजिये ॥१९॥
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*राजा ने विचार किया*
*प्रवृति बहुत राज कै मांही,*
*निर्वरति बिनां मुक्ति है नांही ।*
*लक्ष बहुत मैं पाछै भुगती,*
*प्राप्ति मोहि हुई नहीं मुक्ति ॥२०॥*
तब राजाओं ने अपने मन में विचार किया राज्य में तो प्रवृति का बहुत विस्तार रहेगा और निवृति बिना मुक्ति होगी नहीं । प्रवृति में मैनें लाखों जन्म पहले खोये हैं किन्तु उन जन्मों में मुझे परम सुख रूप मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकी थी श्री दादूजी की कृपा से राजा को आगे पीछे कई जन्मों की सूझने लगी ॥२०॥
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*जाइ वास करैं अब बन में,*
*कीयो विचार नृप यों मन मैं ।*
*करि प्रणांम रू राजा धायौ,*
*पुत्र आठ से वचन सुनायो ॥२१॥*
अत: अब मैं बन में ही निवास करूंगा इस प्रकार का विचार राजा मन में करके सतगुरु दादूजी को प्रणाम करके बन में चला गया तब राजा के आठ सौ पुत्रों ने कहा स्वामी जी महाराज हम भी अब राज नहीं करेंगे ॥२१॥
(क्रमशः)

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