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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ पारिख का अंग २७ - ५/८)*
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*दादू जे नांही सो सब कहैं, है सो कहै न कोइ ।*
*खोटा खरा परखिये, तब ज्यों था त्यों ही होइ ॥५॥*
संसार के लोग जिसका मन तो अशुद्ध है लेकिन वेशभूषा से स्वच्छ लगता है, उसको देख कर कहते हैं कि यह महात्मा बहुत अच्छा है । देखो, इसकी वेशभूषा कैसी सुन्दर है । लेकिन जिसका मन तो पवित्र है परन्तु वेशभूषा गन्दी है उसको देख कहते हैं कि यह कोई भिखारी है । उसको साधु नहीं समझते । यह बाह्य परीक्षा निरर्थक है । सच्चे परीक्षक जब उसके भावों को देखकर परीक्षा करेंगे तो सारा भेद खुल जायगा ।
पद्मपुराण में लिखा है कि- जो मनुष्य अपवित्र दुर्गन्धयुक्त पदार्थों के भक्षण में आनन्द मानता है । बराबर पाप करता रहता है । रास्तों में घूम घूम का चोरी करता है । उसको विद्वान् पुरुषों ने वंचक कहा है, साधु नहीं । जो संपूर्ण कार्यों से अनभिज्ञ है । समयोचित सदाचार का ज्ञान नहीं है, वह मूर्ख वास्तव में पशु ही है ।
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*घट की भान अनीति सब, मन की मेट उपाध ।*
*दादू परिहर पंच की, राम कहैं ते साध ॥६॥*
शरीर की अनीति मन के विकारों को ज्ञानेन्द्रियों की अपने अपने विषय में चंचल प्रवृत्तियों को त्याग कर जो हरि को भजता है वह साधु है । जैसे कहा है कि-
भगवान् शंकर में जिनकी भक्ति है, धन में नहीं, शास्त्रों के अध्ययन में व्यसन है युवति जनों के कामास्त्र में नहीं है, यश की चिन्ता है, शरीर की नहीं । यह प्रायः महात्मा लोगों में देखा जाता है ।
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*अर्थ आया तब जानिये, जब अनर्थ छूटे ।*
*दादू भाँडा भरम का, गिरि चौड़े फूटे ॥७॥*
जब सम्पूर्ण अनर्थों की जड़ निषिद्ध कर्म छुट जायें और भ्रमजन्य मिथ्याभूत अनात्म देहादिकों में अहं मम भाव निवृत्त हो जाय और अहं ब्रह्माऽस्मि यह निरन्तर तैल धारा की तरह अखण्ड ब्रह्माकारा वृत्ति बनती रहे तब समझना चाहिये कि मेरे मन में साधुता घट रही है । लिखा है कि-
यह अज्ञानमूलक अनात्मबन्धन स्वाभाविक तथा अनादि अनन्त कहा है । यही जीव के जन्म मरण व्याधि और जरा आदि दुःखों का प्रवाह उत्पन्न कर देता है । यह बन्धन विधाता की शुद्ध कृपा से प्राप्त हुए विवेकविज्ञानरूप शुभ और मन्जुल महाखङ्ग के बिना अस्त्र शस्त्र वायु अग्नि अथवा करोड़ों कर्मों के द्वारा भी नहीं काटा जा सकता है ।
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*दादू दूजा कहबे को रह्या, अन्तर डारा धोइ ।*
*ऊपर की ये सब कहैं, मांहि न देखै कोइ ॥८॥*
जिस साधक का अन्तःकरण में रहने वाला मिथ्याभूत द्वैत भ्रम ज्ञानाग्नि से भस्म हो गया तो वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है । किन्तु सांसारिक अज्ञानी जन उसके बाहर के भिक्षादि कर्मों को जो शरीर निर्वाह के लिये आवश्यक है, देखकर कहते हैं कि यह ब्रह्मरूप नहीं हो सकता, देखो, कैसे इधर-उधर घूम रहा है । यह तो कोई भिखारी है । उसके अन्दर के भावों को नहीं जानते । न उसकी अद्वैत निष्ठा को ही पहचानते । किन्तु अज्ञानता से उसकी निन्दा करते रहते हैं । ब्रह्मनिष्ठ वह साधु उनके वाक्यों से(निन्दा से) कभी भी बुरा नहीं मानता, न उन पर क्रोध ही करता है, क्योंकि ब्रह्मस्वरूप होने से ।
सुभाषित में लिखा है कि- साधुता या असाधुता यह मनुष्य का स्वभाव है । न दुर्जन के संग से साधु में असाधुता आती है और न साधु के संग से असाधु में साधुता आती । जैसे मणि और सांप का जन्मजात संपर्क है । परन्तु न तो मणि सर्प के दोषों से दूषित होती और न सर्प मणि के गुणों को ग्रहण करता है ।
साधु दुःष्टों के संसर्ग में रहते हुए भी उनके गुणदोषों को ग्रहण नहीं करता । जैसे चन्दन सांप और पक्षियों से लिपटा रहता है परन्तु चन्दन में कोई विकृति नहीं आती । प्रत्युत उनके तापों को हरता रहता है । यही स्वभाव जिस साधु का है वह ब्रह्मरूप ही है ।
(क्रमशः)

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