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*साच अमर जुग जुग रहै, दादू विरला कोइ ।*
*झूठ बहुत संसार में, उत्पत्ति परलै होइ ॥*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु ---साधना
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परमहंस श्रीरामकृष्णदेव के शिष्य दुर्गाचारण नाग महाशय की घर की स्थिति अच्छी न थी । उनके पिता साधारण नौकरी करते थे और होमियोपैथी दवा करते थे । प्राय: उनके यहां गरीब रोगी आते थे। नाग महाशय दवा के साथ पथ्य के लिये पैसे भी प्राय: अपने पास से ही दे दिया करते थे । पिता जिनकी नौकरी करते थे उस कुटुम्ब की एक नारी को कष्ट साध्य रोग से नाग महाशय ने मुक्त कर दिया ।
वे धनाढय थे और प्रसन्नता से नाग महाशय को कुछ धन देना चाहते थे किन्तु नाग महाशय ने केवल बीस रुपये ही लिये । इस पर उनके पिता नाराज हुये । नाग महाशय ने कहा - पिता जी ! चौदह रुपये मेरे सात दिन की फीस के और छ: रुपये औषधि का मूल्य इस प्रकार बीस रुपये ही मेरे हक के हैं । हक से अधिक लेना पाप है । इससे सूचित है कि साधक अपने हक से अधिक नहीं लेते ।
साधक निज हक से अधिक, लेत अन्य से नांहि ।
नाग महाशय ने नहीं, किया लोभ मन माँहिं ॥२१८॥

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