मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

*१३. मन कौ अंग ~ ३७/४०*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१३. मन कौ अंग ~ ३७/४०*
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कहि जगजीवन दूध मन, कांजी विषै विकार ।
हरि घ्रित हरि की क्रिपा लहि, आतम रांम आधार ॥३७॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि यह मन दूध हे इसमें विषय विकार की कांजी जैसी खटाई पड़ने से हम तत्व स्वरूप घी इससे नहीं प्राप्त कर सकते इसके लिये हमारे आधार राम ही होने चाहिये ।
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मनसा वाचा करमनां, प्रीतम परसै आइ ।
जगजीवन भगवंत भजि, जे मन मनहि समाइ ॥३८॥
मन वचन और क्रम से श्रद्धा पूर्वक जब हम प्रभु के समीप आते हैं तो वे हमें सानिध्य देते हैं अतःभगवद् भजन कर अंतर में प्रभु को ही रखना है ।
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जिहिं मन जैसी ऊपजै, उठि करै सोइ काम ।
कहि जगजीवन इहाँ हरि, अंतरजामी४ रांम ॥३९॥
{४. अंतरजामी=अन्तर्यामी(व्यापक)}
संतजगजीवन जी कहते हैं जिसके मन में जैसी उपजती है वह वैसा ही आचरण करता है और संतो के मन में तो सिर्फ सर्व व्यापक राम ही विराजमान है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, देह रहै ता मांहि ।
सोई सुहावै५ प्रांन कूं, हरि गुन भूलै नांहि ॥४०॥
(५. सुहावै=अच्छा लगे)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु यह काया सदा आपके अनुरूप ही रहे । और हर समय आपका ध्यान ही अच्छा लगे और परमात्मा आपने इतना कुछ इस जीव के लिये किया है यह जीव उस कृत उपकार को कभी न भूले सदा आपके गुणानुवाद में लगा रहे ।
(क्रमशः)

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