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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ सजीवन का अंग २६ - ४०/४६)*
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*मूवाँ पीछे मुक्ति बतावैं, मूवाँ पीछे मेला ।*
*मूवाँ पीछे अमर अभय पद, दादू भूले गहिला ॥४०॥*
*मूवाँ पीछे वैकुंठ वासा, मूवाँ स्वर्ग पठावैं ।*
*मूवाँ पीछे मुक्ति बतावैं, दादू जग बोरावैं ॥४१॥*
*मूवाँ पीछे पद पहुँचावैं, मूवाँ पीछे तारैं ।*
*मूवाँ पीछे सद्गति होवै, दादू जीवित मारैं ॥४२॥*
*मूवाँ पीछे भक्ति बतावैं, मूवाँ पीछे सेवा ।*
*मूवाँ पीछे संयम राखैं, दादू दोजख देवा ॥४३॥*
इन सब पद्यों में मरने के बाद मुक्ति को बतलाने वाले वादियों की निन्दा से उनके मत का निषेध कर रहे हैं-
शरीर के नष्ट होने पर अज्ञानी की मुक्ति नहीं होती । ऐसा मानने पर सभी के मोक्ष का प्रसंग हो जायगा और मरने के बाद न परम पद की प्राप्ति होती न बैकुण्ठवास, न स्वर्गवास होता है । गया आदि क्षेत्रों में श्राद्ध करने से पिण्ड दान देने से भी मोक्ष प्राप्त नहीं होता, न सद्गति ही मिलती है ।
प्रभु की भक्ति न पितृ मातृ सेवा और न गुरुजनों की सेवा और न इन्द्रियसंयम ही होता है । ऐसे गुरु जो मरने के बाद मोक्ष बतलाते हैं वे जनता को अंधकार में ही डालते हैं । अतः जो कुछ करना है वह शरीर के जीते हुए ही शमदम आदि साधन संपत्ति के द्वारा ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने के लिये यत्न करना चाहिये ।
स्कन्दपुराण में भक्तों के लक्षण बतलाते हुए कह रहे हैं कि- जिनका चित्त शान्त है, सब के प्रति कोमल भाव रखता है । जो जितेन्द्रिय है तथा मन वाणी कर्म द्वारा कभी किसी से द्रोह नहीं करते । दया से जिनका चित्त पिघल जाता है । चोरी हिंसा से सदा विमुख रहते हैं । गुणों में पक्षपाती दूसरों के कार्य साधन में प्रसन्नतापूर्वक संलग्न रहते हैं । सदाचार से जिनका जीवन उज्जवल हो रहा है । जो दूसरों के उत्सव को अपना मानते है । सब प्राणियों के अन्दर श्री वासुदेव को देख कर किसी से ईर्ष्या द्वेष नहीं करते । दीनों पर दया करना जिनका स्वभाव बन गया है । जो परहित साधन की इच्छा रखता है, इन सब लक्षणों से युक्त पुरुष ही जीवन्मुक्त होते हैं और वे ही विदेह मुक्ति को प्राप्त करते हैं ।
शास्त्रों में गया आदि तीर्थों में पिण्डदान श्राद्ध तर्पण आदि का जो विधान है, वह अज्ञ पुरुषों को सत्कर्म में लगाने के लिये ही है । अतः उससे हमारा कोई विरोध नहीं है ।
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*॥ सजीवन ॥*
*दादू धरती क्या साधन किया, अंबर कौन अभ्यास ?*
*रवि शशि किस आरंभ तैं ? अमर भये निज दास ॥४४॥*
पृथिवी, आकाश, सूर्य, चन्द्र आदि किस साधन से अमर हुए हैं । उत्तर निजदास । अर्थात् वे भगवान् के आज्ञाकारी दास हैं । अतः वे सब प्रभु की कृपा से ही अमर बने हैं । इस प्रकार अन्य भी साधक भगवत्कृपा से मुक्त हो जाते हैं, न कि साधन विशेष के करने से । क्योंकि भगवान् किसी साधन संपत्ति से प्राप्त नहीं होते । साधन तो अन्तःकरण की शुद्धि तथा भगवत्कृपा की प्राप्ति के लिये होते हैं । इसीलिये भक्त मुक्ति को छोड़कर भगवान् से भक्ति ही चाहते हैं । लिखा है कि-
हे नाथ ! मुझे अब तो मुक्ति की इच्छा है, न सांसारिक वैभव से ही प्रयोजन है । हे ईश ! मैं तो बार-बार हाथ जोड़कर आपसे यह ही मांगता हूं कि सोते-जागते खडा रहते-चलते सुख-दुःख, घर, वन, रात और दिन में सब समय ही आप की भक्ति बनी रहे ।
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*साहिब मारे ते मुये, कोई जीवै नांहि ।*
*साहिब राखे ते रहे, दादू निज घर मांहि ॥४५॥*
यह जीवात्मा अपना कर्म फल भोगने के लिये जन्म लेता है, ईश्वर तो प्रारब्ध कर्मानुसार केवल काल का प्रेरक है और वह काल की प्रारब्ध कर्म समाप्ति के बाद जीव को मारता है । अतः ईश्वर केवल प्रेरक मात्र हैं । वह किसी को भी नहीं मारता किन्तु कर्म ही मनुष्य को मारने वाले हैं । ईश्वर के केवल प्रेरकत्व मात्र धर्म को लेकर ही श्री दादूजी ने “साहिब मारै तै मरे” ऐसा लिखा है । अतः जो कर्म से मारे जाते हैं वे सदा के लिये ही मरे हुए ही रहते हैं । अर्थात् वे फिर भक्ति मार्ग से कभी भी प्रवृत्त नहीं होते । जो भगवान् के भक्त हैं उनको भगवान् सकाम कर्मों में प्रवृत्त होने में रक्षा करते हैं । अतः वे निष्काम होने से निजस्वरूप ब्रह्म में प्रविष्ट रहते हैं । महाभारत में लिखा है कि- इस बालक ने जो कर्म किया है वही इसकी मृत्यु में प्रेरक हैं । दूसरा कोई इस के विनाश का कारण नहीं है । यह जीव अपने कर्म से ही मरता है । हम सब लोग कर्म के अधीन हैं । जैसे कुम्हार मिट्टी के पिण्ड से जो बनाना चाहता है वही बना लेता है । इसी प्रकार मनुष्य भी अपने किये कर्म के अनुसार ही सब कुछ पाता है । ब्रह्मसूत्र में लिखा है कि-भगवान् सब के अध्यक्ष हैं । सृष्टि, स्थिति, संहारादि विचित्र कार्यों के करने वाले हैं । देशकालादिकों को सर्वज्ञ होने से जानते हैं । अतः कर्मियों को कर्मानुसार फल देते हैं ।
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*जे जन राखे राम जी, अपने अंग लगाइ ।*
*दादू कुछ व्यापै नहीं, जे कोटि काल झख जाइ ॥४६॥*
*॥ इति सजीवन कौ अंग संपूर्ण समाप्त ॥२६॥*
जिस भक्त को भगवान् प्रसन्न होकर अपने वास्तविक निजरूप में लीन करके रक्षा कर देते हैं उसको करोड़ों काल भी नहीं मार सकते क्योंकि वह तो मुक्त हो गया । फिर वह कभी दुःखी नहीं होता । अतःकाल से बचने के लिये भक्ति करनी चाहिये ।
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॥ इति सजीवन का अंग का पं. आत्माराम स्वामी कृत भाषानुवाद समाप्त ॥२६॥
(क्रमशः)

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