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*साधु बरसैं राम रस, अमृत वाणी आइ ।*
*दादू दर्शन देखतां, त्रिविध ताप तन जाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर,राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*सत्संग प्रभाव*
*उद्धव विदुर अक्रूर,*
*भये मोक्षारथ मैत्रे ।*
*गांधारी धृतराष्ट्र,*
*रु संजय सारथि है त्रे ॥*
*श्रुतदेव रु बहुलाश्व,*
*आश मन की सब पूरी ।*
*मित्र सुदामा जान,*
*किया सब ही दुख दूरी ॥*
*शोकसिन्धु से काढ़ के,*
*किये महाजन मुक्त रे ।*
*राघव सूखे काठ सब,*
*होत अबै सतसंग हरे ॥८९॥*
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*६.धृतराष्ट्र-* राजा विचित्र वीर्य के क्षेत्रज्ञ पुत्र थे । विचित्र वीर्य की पत्नी अम्बिका के गर्भ से व्यास द्वारा उत्पन्न हुये थे । ये जन्म से ही अन्धे थे । भीष्मजी ने इनका पुत्रवत पालन किया था । गान्धारी से इनके दुर्योधनादि सौ पुत्र और दुःशला नाम की एक पुत्री हुई थी । उसका विवाह सिन्धुराज जयद्रथ के साथ किया था । इनको विदुर, व्यास और सनत्सुजात आदि का सत्संग प्राप्त हुआ था । उस सत्संग के प्रभाव से ही ये अन्त में गान्धारी, कुन्ती, विदुर और संजय के साथ तपस्या के लिये वन को चले गये थे ।
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*७.संजय-* गवल्गण नामक सूत के पुत्र और धृतराष्ट्र के सारथि थे । ये व्यासजी के सत्संग से मुनियों के समान ज्ञानी तथा धर्मात्मा हो गये थे, यह प्रसिद्ध है ।
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*८.सुमंत्र-* अयोध्या नरेश महाराज दशरथ के सारथि थे । इनकी कथा तथा राम-प्रेम रामायण में प्रसिद्ध ही है । आप भी सत्संग से ही महान् बने थे ।
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*९.दारुक-* भगवान् श्रीकृष्ण के सारथि थे । भगवान् के सत्संग से अति महान् हो गये हैं और अति प्रसिद्ध हैं । उक्त छप्पय में- ‘संजय सारथि हैं त्रे’ दूसरे दो सुमंत्र तथा दारुकजी का ही ग्रहण है । ये तीनों ही सारथि सत्संग से भगवद् भक्त हो गये हैं ।
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*१०.११-* श्रुतदेव और बहुलाश्व के मन की भगवान् ने सभी आशा पूर्ण की । मिथिला के राजा बहुलाश्व भगवान् के भक्त अहंकार हीन प्रजावत्सल थे । मिथिला में ही भगवान् के परम भक्त दरिद्र ब्राह्मण श्रुतदेव रहते थे । जब सत्यभामाजी के पिता सत्राजित् को शतधन्वा ने रात में छिपकर घर में जाकर मार दिया था तब श्रीराम-कृष्ण द्वारका में नहीं थे । समाचार पाकर हस्तिपुर से आये । शतधन्वा भय के मारे घोड़े पर चढ़कर भागा । रथ पर बैठकर राम-कृष्णजी ने उनका पीछा किया । मिथिलापुरी के बाहर एक बाग में शतधन्वा मारा गया । तब कृष्ण तो द्वारका में आ गये और बलरामजी राजा बहुलाश्व के चले गये और तीन वर्ष रहे ।
बहुलाश्व और श्रुतदेव को जब ज्ञात हुआ कि-भगवान् पास आकर भी बिना दर्शन दिये चले, इससे उन दोनों को बड़ा दुःख हुआ । दोनों ही भगवान् के दर्शनों को अति आतुर हुये । उनकी श्रद्धा-भक्ति देखकर भगवान् श्रीकृष्ण, नारद, वामदेव, अत्रि, व्यास, पराशर, असित, आरुणि, शुकदेव, वृहस्पति, कण्व, मैत्रेय, च्यवन आदि ऋषि मुनियों के साथ द्वारका से मिथिला पधारे । नगर निवासी नाना उपहार लेकर बाहर आये और दंडवत प्रणाम किया । बहुलाश्व और श्रुतदेव ऐसा समझते थे कि मेरे पर कृपा और ही भगवान् पधारे हैं ।
दोनों ने प्रणाम करके अपने-अपने घर पधारने की प्रार्थना की । भगवान् ने उनकी प्रीति देखकर ऋषि-मुनियों के साथ दो रूप धारण कर लिये और दोनों के पधार गये । राजा ने विधिवत् पूजा करके कुछ दिन विराजने की प्रार्थना की । भगवान् ने स्वीकार कर ली । श्रुतदेव भगवान् को कुटिया पर ले गये और प्रेम से मस्त होकर अपना दुपट्टा हिलाते हुये भगवान् के नामों का कीर्तन करने लगे । फिर कुछ सुध आने पर सबको चटाई आदि आसन दिये और प्राप्त सामग्री से भगवान् की पूजा की किन्तु प्रेमावेश में संतों की पूजा करना भूल गये ।
फिर भगवान् ने संतों की पूजा करने का संकेत किया तब भगवान् के समान ही संतों को समझ कर वैसे ही सब की पूजा की । भगवान् जितने दिन राजा के राजमहल में रहे उतने ही दिन श्रुतदेव की कुटिया पर रहे । फिर उन दोनों से विदा होकर द्वारका लौट आये । बहुलाश्व और श्रुतदेव भी भगवत् चिन्तन करते हुये भगवान् के धाम को प्राप्त हुये । यह सत्संग का ही प्रभाव था ।
*१२.अपने मित्र सुदामाजी* को भी दरिद्री जान कर उनका भी भगवान् में अपने सत्संग से सब दुःख दूर कर दिया था । अनेक महाजनों को शोक समुद्र से निकाल कर सत्संग ने मुक्त किये हैं । राघवदासजी कहते हैं- अब अर्थात् इस कलियुग के समय में भी सत्संग से सूखे काष्ठ हरे होते देखे जाते हैं- १.संत भर्तृहरि को एक समय राजा ने चोर समझकर शूली पर चढ़ाया था तब वह काष्ठ की शूली भर्तृहरि के किंचित संग से ही हरी हो गई थी और उसका लोह का भाग मोम के समान बन गया था । २.तत्वा जीवाजी का सूखा ठूंठ संत चरण के जल से हरा हो गया था यह प्रसिद्ध है । इसी प्रकार सभी प्राणी सत्संग से उन्नति को प्राप्त होते हैं ।
(क्रमशः)
श्री राम
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