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*अन्तरगत औरै कछु, मुख रसना कुछ और ।*
*दादू करणी और कुछ, तिनको नांही ठौर ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*नितिज्ञ का अंग १३९*
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कर्म स्थानिक कर लगे, धर्म स्थानिक धोक ।
जन रज्जब रस१ रीति यहु, हर्ष हसेबी२ थोक३ ॥२९॥
कुकर्म रूप स्थान में स्थित रहने वाले के कर लगते हैं, धर्म रूप स्थान में रहने वाले को प्रणाम करते हैं, नीति में प्रेम१ रखने वालो की यही रीति है, नीति रूप हिसाब२ से रहने वाला समूह३ आनन्द में रहता है ।
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एक ठौर है दंड की, एक ठौर डंडौत ।
मार महर१ दोउ नीति में, नर हु निपातण२ नौत३ ॥३०॥
एक अर्थात कुकर्म रूप स्थान तो दंड प्राप्त होने का है और एक अर्थात धर्म रूप स्थान प्रणाम करने का है । नीति में मार और दया१ दोनों है । नीतिज्ञ अपराधी नर को मारते२ हैं और धर्मात्मा को नमस्कार३ करते हैं ।
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रज्जब रचना राम की, चौरासी लख जोय ।
एक एक ने ना करी, अब सु एक क्यों होय ॥३१॥
नीतिज्ञ राम की रचना चौरासी लाख योनियाँ हैं, उस एक ईश्वर ने एक योनि की रचना नहीं की तब अब एक कैसे हो सकती है ?
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खंड१ खंड क्षितिभुज२ घने३, घट४ घट घाट५ अनेक ।
रज्जब वसुधा६ बहुमति७, सु अविगत८ करी न एक ॥३२॥
पृथ्वी के प्रत्येक भू भाग१ में राजा२ बहुत३ हैं, प्रत्येक शरीर४ के रंगढंग५ भिन्न भिन्न होने से अनेक हैं इस प्रकार पृथ्वी६ बहुत-मतों७ वाली है, नीतिज्ञ प्रभु८ ने इसे एक मत वाली बनाई ही नहीं है । मायिक कार्य की भिन्नता से ही शोभा होती है ।
(क्रमशः)
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