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*दादू करणी काल की, सब जग परलै होइ ।*
*राम विमुख सब मर गये, चेत न देखै कोइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*नितिज्ञ का अंग १३९*
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जड तरुवर तोयं१ गहै, रंगहुं रस रुचि नांहि ।
तो अन२ पाणी बिन आदमी, और गहै क्यों मांहिं ॥९॥
जड़ वृक्ष भी जल१ को ग्रहण करता है उसमें मिले हुये रंग और कटु मधुरादि रस को ग्रहण करने की रुचि नहीं रखता, तब नीतिज्ञ मनुष्य अन्न२ जल के बिना अन्य मांस-सुरादी को ग्रहण करने की रुचि मन में कैसे रक्खेगा ?
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करता१ करै की कर्म गति२, बुरा बुरे का होय ।
नर नराघिपति नीति बिन, सुखी न देख्या कोय ॥१०॥
ईश्वर१ करे अथवा कर्म की चेष्टा२ करे बुरे मानव का तो बुरा ही होता है, नर या नरपति हो नीति के बिना तो कोई भी सुखी नहीं देखा गया है ।
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बागे१ दे रु निवाज२ ही, बागों३ करिनि सतान४ ।
रज्जब बागों५ विगति बहु, बागों सुख दुख सान ॥११॥
विवाह के समय तो जामा१ देकर कृपा२ करते हैं और फांसी के समय अंगरखा३ पहना कर सताते४ हैं । अत: नीतिज्ञ मनुष्यों के वस्त्र५ देने से भी बहुत प्रकार के विचार होते हैं, वस्त्रों के देने में सुख दुख दोनों मिले रहते हैं ।
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वपु बागे१ अमृत विष सानि२ रू, साधु असाधु पहराये ।
सन्मुख चलै निवाजे दीसै, विमुख जीव मराये ॥१२॥
नीतिज्ञ ईश्वर ने भी ज्ञानामृत मिला२ कर शरीर रूप वस्त्र१ साधु को पहनाया है और विषयाशा रूप विष मिलाकर शरीर रूप वस्त्र असाधु को पहनाया है । संत जीव प्रभु के सन्मुख चलते हैं तब प्रभु द्वारा कृपा किये हुये दीखते हैं, असाधु जीव ईश्वर से विमुख चलते हैं, अत: उनको बारंबार मृत्यु से मराया जाता है ।
(क्रमशः)

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