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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१३. मन कौ अंग ~ ४५/४८*
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मन बैरागी करि रहै, सतगुरु की ए सीख ।
जगजीवन कहिं कछु नहीं, घर घर मांग्या भीख१ ॥४५॥
(१. भीख=भिक्षा)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन को वैराग्य में रखें यह ही गुरु महाराज का उपदेश है । घर घर याचना करने से कुछ नहीं मिलने वाला है ।
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तन ठाली मन जंजाली२, अंन जल परसै बाइ ।
कहि जगजीवन धरणि३ मंहि, गगन न भीजै आइ ॥४६॥
(२. जंजाली=प्रपच्ची) (३. धरणि=पृथिवी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि तन खाली रहे, निष्क्रिय रहे, तो मन में जाने कितने ही जंजाल आते रहते हैं । यह अन्न जल और वायु का स्पर्श प्रभाव है । धरा को आद्र अम्बर उपर से ही करता है वह स्वयं नीचे नहीं आता है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, तन कष्टी४ कहा सिधि ।
जे चित डोलै विस्व मंहि, रूप सुहावै रिधि ॥४७॥
(४. तन कष्टी=शरीर को दुःख देने वाली)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु देह को कष्ट देकर कहाँ सिद्धि मिलती है । अगर हमारा चित्त संसार में भ्रमित है तो हम ऐश्वर्य ही पा सकते है प्रभु को नहीं ।
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मनसा मांही मन रहै, मन महिं निज अंग ।
जगजीवन एही भजन, एही उत्तम संग ॥४८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन की स्थिति सदैव आशाओं में ही बंधी रहती है और मन अपने शरीर को ही चाहता रहे अध्यात्मिक मूल्यों को भूल जाये और यह विचारे़ की यह ही भजन व यह ही साथ जायेगा यह गलत धारणा है ।
(क्रमशः)
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