बुधवार, 10 फ़रवरी 2021

पारिख का अंग २७ - ९/१३

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
https://www.facebook.com/DADUVANI
भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*(#श्रीदादूवाणी ~ पारिख का अंग २७ - ९/१३)*
.
*दादू जैसे मांहि जीव रहै, तैसी आवै बास ।*
*मुख बोले तब जानिये, अन्तर का परकास ॥९॥*
जिसके अन्तःकरण में जैसी भावना होती है तो वह वाणी से उसी भावना को प्रकट करता है । इसलिये हृदय के भाव जब वाणी के द्वारा बाहर प्रकाशित होते हैं तब ही साधु असाधु का निर्णय होता है । बाह्यवेश से नहीं ।
.
*दादू ऊपर देख कर, सबको राखै नांव ।*
*अंतरगति की जे लखैं, तिनकी मैं बलि जांव ॥१०॥*
सांसारिक पुरुष केवल बाह्य वेशभूषादि को देखकर ही यह साधु है और यह असाधु है ऐसा कह देते हैं । वे आन्तर भावनाओं को नहीं देखते । जो विज्ञ आन्तर भावनाओं को जानता है, वह धन्यवाद का पात्र है, मैं भी उसको धन्यवाद देता हूं ।
.
*॥ जगजन विपरीत ॥*
*तन मन आत्म एक है, दूजा सब उनहार ।*
*दादू मूल पाया नहीं, दुविधा भ्रम विकार ॥११॥*
स्थूल सूक्ष्म शरीर पञ्चभूतों से उत्पन्न होने के कारण सब के समान ही है । चेतन आत्मा भी सब की एक ही है । केवल शरीरों की बनावट(आकृति) भिन्न-भिन्न हैं । जिन्होंने आन्तर भावना को नहीं पहचाना तो वे दुविधा के कारण संसार में भटकते रहते हैं, और वे संसार का मूल कारण जो ब्रह्म है उसको भी नहीं जान सकते हैं ।
.
*काया के सब गुण बँधे, चौरासी लख जीव ।*
*दादू सेवक सो नहीं, जे रंग राते पीव ॥१२॥*
चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने वाले जीव शरीर कृत गुणों से बंधे हुए हैं । किन्तू ज्ञानी भक्त हैं वे प्रभु प्रेम निमग्न रहने के कारण शरीर के अध्यासजन्य बन्धनों से रहित हैं सर्वत्र सन्मात्र रूप से मैं ही हूं इस भावना से आनन्दित रहते हैं ।
वासिष्ठ में कहा है कि- जो आत्मत्वेन प्रतीयमान जीव तथा दृश्यवर्ग को नित्य चैतन्य रूप से अभिन्न दृष्टि से देखता है वह ही वास्तविक ज्ञानी है । आधि व्याधि भय से उद्विग्न जरा मरण धर्म से युक्त जो यह देह है । वह मैं नहीं हूं । ऐसे जो देखता है वह ही वास्तविक देखने वाला है ।
.
*काया के वश जीव सब, ह्वै गये अनन्त अपार ।*
*दादू काया वश करै, निरंजन निराकार ॥१३॥*
शरीर के अध्यास के कारण ही बहुत से अज्ञानी जन बार-बार जन्मते मरते हैं जो महात्मा इस शरीर के अध्यास को त्याग कर निरंजनं निराकार ब्रह्म का ध्यान करते हैं वे ब्रह्मरूप हो जाते हैं । योगवासिष्ठ में लिखा है कि- यह शरीर आपत्तियों का घर है और मिथ्या भ्रम के कारण ही भिन्न मालुम पडता है । यदि आत्मभावना से देखें तो सब आत्मरूप ही हैं । आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक जो सुख दुःख हैं, वे मेरे नहीं हैं ऐसा जो जानता है, वह ही वस्तुतः जानने वाला है ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें