मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

= *नितिज्ञ का अंग १३९(१७/२०)* =

🌷🙏 🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷🙏 *#श्री०रज्जबवाणी* 🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*पहली प्राण पशू नर कीजे, साच झूठ सँसार ।*
*नीति अनीति भला बुरा, शुभ अशुभ निर्धार ॥*
=======================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*नितिज्ञ का अंग १३९*
.
अंतक१ सदा अनीति के, नीति मीत२ प्रतिपाल ।
रज्जब महंत मही३ पत्यों४, चार हु युग यहु चाल ॥१७॥
सदा अनीति के नाशक१ होते हैं, नीति के मित्र२ और रक्षक होते हैं, महंत और पृथ्वी३ के स्वामी४ राजाओं का चारों युग में यही व्यवहार होता है ।
.
रज्जब जीवहिं जीव दे, सो सब छोटा१ साज२ ।
जिसहिं निवाजै३ सांइयाँ, सो सब ही सिरताज४ ॥१८॥
यदि जीव को जीव देता है और वह सामान१ बहुत होने पर भी थोड़ा२ ही होता है किंतु जिसकी कृपा३ करके ईश्वर देता है तो वह सभी से श्रेष्ठ४ कहा जाता है ।
.
पांचों थापी रोटियाँ, सो तो पांचों खाय ।
पै पंचों थापी थापड़ी, सो चूल्हे में जाय ॥१९॥
पाँचों अंगुलियों से रोटी बनाई जाती है, उनकों पाँचों अंगुलियों द्वारा ही खाया जाता है, किंतु ये ही पाँचों अंगुलियाँ थापड़ी थापती हैं वह चूल्हे में जाकर जलती हैं ऐसी ही नीति देखने में आती है, खाने योग्य को ही खाया जाता है ।
.
शब्द शरीरों ऊपज हिं, सो वंद१ हिं सब लोय२ ।
वायु रु विष्टा पेट की, मनिष३ न माने कोय ॥२०॥
शरीर से शब्द उत्पन्न होते हैं, उनको तो सभी लोग२ प्रणाम१ करते हैं उसी शरीर के पेट का अपान वायु और मल होता है उसे कोई भी मनुष्य३ अच्छा नहीं मानता ऐसी ही नीति है ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें