बुधवार, 3 फ़रवरी 2021

= *आचार उथेल का अंग १३७(५/८)* =

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*दादू अमृत कूँ विष, विष को अमृत, फेरि धरैं सब नाम ।*
*निर्मल मैला, मैला निर्मल, जाहिंगे किस ठाम ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*आचार उथेल का अंग १३७*
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चर्म दृष्टि चौके चढै, छांटि सु खित१ गज दोय ।
रज्जब सो समझै नहीं, जिन श्रावण भेई गोय२ ॥५॥
चर्म दृष्टि चौके में पड़ती है तब दो गज पृथ्वी१ पर जल छिड़क देते हैं किंतु उन प्रभु के स्वरूप को नहीं समझते जिनने श्रावण मास में सभी पृथ्वी२ को भिगोया था ।
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रज्जब चौके चकहुं१ के, जीव हुं च्यार्यौं खानि ।
सु लखे बिना लिपत फिरें, तुछ ते सीद्या२ आनि३ ॥६॥
पृथ्वी१ के चौके में जरायुज, अंडज, स्वेदज, उदभिज इन चारों की खानि के जीव हैं, उनको ठीक देखे बिना जो लीपते फिरते हैं, वास्तव में वे तुच्छ प्राणी हैं जो अन्य३ को दुख२ देते हैं ।
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भांति भाँति भोजन भरे, भुवि१ भाणे२ भगवंत ।
रज्जब एक हि थाल में, जीव हिं जीव अनंत ॥७॥
भगवान ने पृथ्वी१ रूप वर्तन२ में नाना प्रकार के भोजन भर रखे हैं । एक पृथ्वी रूप थाल में ही जीम कर अनन्त जीव जीवन धारण करते हैं ।
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अजरी१ आये उठि गया, इल२ ऊपर आचार ।
रज्जब शुचिता३ ना रही, वेत्ता४ करो विचार ॥८॥
हे ज्ञानी४ जनों ! विचार करो, आचार तो मक्खी१ आते ही पृथ्वी२ पर से उठ गया है, पवित्रता३ नहीं रही है, वह मलीन वस्तु से उड़कर भोजन पर आ बैठती है ।
(क्रमशः)

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