सोमवार, 8 फ़रवरी 2021

*१३. मन कौ अंग ~ ९/१२*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१३. मन कौ अंग ~ ९/१२*
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देखौ दरपन आरसी, कहा कालिमा खोड़७ ।
फेरि अपूठा८ रांम सौ, जगजीवन मन जोड़ ॥९॥
{७. खोड़=खोट(कमी=न्यूनता)} (८. अपूठा=पुनः)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन के दर्पण में देखें कि कहां कपट रुपी कालिमा है और कहाँ हमारे मन में खोट है । यह सब विचार कर अपना मन प्रभु सेवा में लगा दें ।
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बिषहरि९ बसि करि बसावै, निकुत१० निसा भजि नांम ।
कहि जगजीवन मांहि मन, यौं हरि राखै रांम ॥१०॥
{९. बिषहरि=विषधर(सर्प)} (१०. निकुत=हठी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यह मन उन्मत हाथी जैसा है इसके उपर बैठ कर इसे वश में करें शेर को हाथ से पकड़लें इतना बल या आत्मशक्ति हो तब प्रभु शरण देकर पालन पोषण करते हैं ।
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कहि जगजीवन नांम मंहि, करै आप बसि लोइ ।
हरि भजि तन तजि मांहि मन, राखै बिरला कोइ ॥११॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे जीवात्मा हरि नाम में ही अपना सब लीन करो । उसी से लय लगाओ । शरीर के महत्व को त्याग कर हरि भजन को ही महत्व देने वाले जन विरले ही होते हैं ।
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काला नाग न छेड़िये, अति विष भर्या भवंग ।
जगजीवन अग्यांन नर, परिहरिये ता संग ॥१२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अज्ञानी जन अति विषैलै सर्प के समान होते हैं । उनका संग कभी नहीं करना चाहिये ।
(क्रमशः)

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