बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

उपजणि का अंग २८ - १/३

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
https://www.facebook.com/DADUVANI
भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*(#श्रीदादूवाणी ~ उपजणि का अंग २८ - १/३)*
.
*दादू ठग आमेर में, साधौं सौं कहियो ।*
*हम शरणाई राम की, तुम नीके रहियो ॥३८॥*
*॥ इति पारिख कौ अंग संपूर्ण समाप्त ॥२७॥*
आमेर नगर से उत्तर दिशा में गुढा ग्राम में एक साधु विराजते थे । वह अपने को दादू नाम से पुकारते थे और कहते थे कि आमेर में जो दादू नाम का साधु है, वह तो दम्भी है, दुनिया को ठगता है । सच्चा दादू नाम तो मेरा है । यह वृत्तान्त किसी शिष्य ने श्री दादू जी के पास जाकर उनको सुना दिया । उस समय इस साखी से श्री दादूजी ने सब को उपदेश दिया कि वह साधु सत्य ही कहता है लेकिन मैं दम्भी होता हुआ भी भगवान् की शरणागति में हूं । अतः भगवान् मुझ शरणागत की रक्षा ही करेंगे, दम्भी समझ का उपेक्षा नहीं करेंगे । शरणागत की रक्षा करना उनका नियम है । परन्तु हे साधु, तुम अच्छी तरह से रहना, कभी माया से मोहित न हो जाना । भाव यह है कि भगवान् उस साधु के द्वारा परीक्षा कर रहे थे और दादू जी उस परीक्षा में सफल हो गये क्योंकि उस साधु की बात को सुनकर श्री दादूजी महाराज के मन में कोई भी विकृति नहीं हुई, न प्रतिक्रिया की भावना ही जागी ।
॥ इति पारिख के अंग का पं. आत्माराम स्वामी कृत भाषानुवाद समाप्त ॥२७॥
.
*॥ अथ उपजणि कौ अंग ॥२८॥*
*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।*
*वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥*
*॥ विचार ॥*
*दादू माया का गुण बल करै, आपा उपजै आइ ।*
*राजस तामस सात्विकी, मन चंचल ह्वै जाइ ॥२॥*
*आपा नाहीं बल मिटै, त्रिविध तिमिर नहिं कोइ ।*
*दादू यहु गुण ब्रह्म का, शून्य समाना सोइ ॥३॥*
साधक के हृदय में जब अहंकार भाव पैदा होता है, तब सात्विक राजस गुणों का प्रभाव बढ जाता है । उस समय सात्विक राजस तामस प्रवृत्ति द्वारा साधक का मन चंचल हो जाता है । ज्ञान के द्वारा जब अज्ञान का नाश हो जाता है तब तीनों गुणों का बल भी समाप्त हो जाता है और त्रिविध प्रवृत्ति भी नहीं होती । क्योंकि जितनी भी प्रवृत्तियाँ हैं वे सब अज्ञानमूलक ही होती हैं । जब अज्ञान ही नष्ट हो गया तब प्रवृत्ति सम्भव नहीं होती । यह साधक की सहजावस्था कहलाती है । इस अवस्था में साधक शून्य ब्रह्म में रमण करता है ।
योगवासिष्ठ में लिखा है कि- आत्मा में विकार को पैदा करने वाले त्रिगुण संघ को जब त्याग देता है तब वह स्वस्थ हो कर आत्मा में रहता है उस अवस्था में कुछ करता हुआ भी कर्म से लिप्त नहीं होता । हर्ष, आमर्ष, और विषाद से विरूपता नहीं आती तथा राग भय क्रोध आदि सब नष्ट हो जाते हैं । दुःख में घबराता नहीं, सुख में प्रसन्न नहीं होता । आशा के अधीन नहीं होता और सुख दुःख देने वाले व्यवहारों में विचरण करता हुआ भी आत्मा के तादात्म्य को नहीं छोडता । यह साधक की असंग दशा है ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें