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*पाणी पावक, पावक पाणी, जाणै नहीं अजाण ।*
*आदि रु अंत विचार कर, दादू जाण सुजाण ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*नितिज्ञ का अंग १३९*
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प्रहलाद बच्या होली जली, रही उभय रस१ रीति ।
रज्जब पेखि प्रवीणता, अग्नि न करी अनीति ॥५॥
प्रहलाद बच गया होलिका जल गई दोनों की नीति प्रेम१ और अनीति प्रेम की रीति स्थिर रह गई अर्थात नीति प्रेम से रक्षा और अनीति प्रेम से नाश होता है सो हो गया । देखो, अग्नि की नीति निपुणता, उसने अनीति नहीं की, बचाने योग्य प्रहलाद को बचा लिया और जलाने योग्य होलिका को जला दिया ।
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रामचन्द्र रावण सु रिपु, विभिषण सो भाई ।
शत्रु मित्र शोधे१ करी, हये२ न एक हि धाई३ ॥६॥
रामचन्द्र रावण के शत्रु थे, विभषण रावण का भाई था किंतु नीतिज्ञ होने से उसने विचार१ करके नितिज्ञ राम से मित्रता करी, राम ने भी उसके एक आघात३ भी नहीं मारा२ ।
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रज्जब दुविधा दूरि लग, स्वर्ग नरक ह्वै वास ।
एकाँ१ को देवल२ फिरै, इक जिव जाय निरास ॥७॥
नीति अनीति की दुविधा दूर तक है, नीति से स्वर्ग में निवास होता है, अनीति से नरक में वास होता है । यहाँ भी नीति से एक१ नामदेव के लिये तो मंदिर२ फिर जाता है और एक अनीति से हताश होकर जाता है ।
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अठारह भार आदम१ घरउं२, ग्रास३ हि अग्नि अतीत४ ।
कगरि५ कुमाणस टल चलहिं, यहु आदू रस६ रीति ॥८॥
अग्नि अठारह भार वनस्पति को खाता३ है किंतु नदी के किनारे५ से टल कर चलता है, वैसे ही साधु४ मनुष्यों१ के घरों२ से भोजन खाता३ है किंतु कुमानवों से बचकर ही चलता है, यह नीति प्रेम६ की आदि काल से रीति है ।
(क्रमशः)

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